गुरुवार, 15 मार्च 2012

भारत के लिए खतरनाक है आतंकवादियों के प्रति छद्म सैक्युलरवादी शक्तियां का समर्थन !!!

अभी अधिक समय नहीं हुआ जब पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत के चक कस्बे में हिन्दू चिकित्सक डॉ. अजीत और उनके दो परिजनों नरेश व अशोक कुमार की हत्या कर दी गई। हमले में एक अन्य चिकित्सक डॉ. सत्यपाल गंभीर रूप से घायल हुए है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव में प्रशासन ने दोषियों के खिलाप जो भी कार्रवाही की, उसका पाकिस्तान की जनता ने हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों द्वारा भारी विरोध किया। असुरक्षा के वातावरण में कुछ अल्पसंख्यक हिन्दू पर्यटक वीजा पर पाकिस्तान से भागकर भारत में आ गये। भारत में फिलस्तीनी नागरिकों के अधिकारों और कश्मीर के अलगाववादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतर आने वाले मानवाधिकारी और छद्म सैक्युलर बुद्धिजीवी पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर खामोश क्यों हैं?
कश्मीर समस्या पर विचार करते हुए सैक्युलर बुद्धिजीवी चाहते है कि घाटी की चर्चा हो, किन्तु कश्मीर के मूल निवासियों के बलात् निर्वासन पर चिन्ता व्यक्त न की जाए। वे अलगाववादी आतंकी नेताओं को ही स्थानीय आबादी का प्रतिनिधि मानते हैं। क्या मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षता के समस्त लाभ घाटी के पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों के लिए ही निश्चित होने चाहिए? अमेरिका में सत्तारूढ़ डैमोक्रेटिक पार्टी के सांसद फ्रैंक पॉलोन ने अमेरिकी संसद में प्रस्ताव पेश कर कहा है कि कश्मीर के मूल निवासी और अपनी धरोहर व संस्कृति को हजारों सालों से सहेजे रखने वाले कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का वर्ष 1989 से ही हनन हो रहा है।1989 में घाटी में करीब 4 लाख कश्मीरी पंडित थे, इस्लामी जेहादियों के उत्पीड़न के कारण घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ और अब वहां केवल 4000 कश्मीरी पंडित ही शेष रह गए है। क्या ऐसा उदाहरण संसार के किसी दूसरे देश में मिल सकता है, जहां अपने ही देश के एक भाग में वहां के बहुसंख्यक 2 दशक से भी कम समय में नगण्य हो गए हों?
महाश्वेता देवी और अरूंधती रॉय दोनों की एक सैक्युलर साहित्यकार के रूप में विशेष प्रतिष्ठा है किन्तु जब भी किसी सामाजिक विषय पर उनकी जबान चलती है तो इसका खुलासा होते देर नहीं लगती कि दोनों न केवल मूल वास्तविक समस्या से अनभिज्ञ है बल्कि उनकी सोच किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। नक्सली आतंकवाद आज भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है जिसे प्रारम्भिक टाल-मटोल के बाद अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया है, किन्तु देश में मानवाधिकारियों-सैक्युलर बुद्धिजीवियों के नाम पर एक सशक्त समूह भी विद्यमान है जो हिंसा पर विश्वास करने वाले नक्सलियों को 'जन नायक' बताता है।
गुजरात दंगों के दौरान अरूंधति रॉय की कलम खूब चली किन्तु उनके दुश्प्रचार की कलाई पीड़ित परिवार के एक व्यक्ति ने ही खोल दी। सांसद एहसान जाफरी के घर हुए हमलों का उल्लेख उन्होंने इस तरह किया था मानो वह घटनास्थल पर प्रत्यक्षदर्शी रही हो। जाफरी की बेटी के साथ बलात्कार और दंगाइयों द्वारा तलवार से उसका पेट चीर डालने के उनके क्षूठ ने समाज के एक वर्ग को कितना उद्वेलित किया होगा, सहज सोचा जा सकता है। बाद में पता चला की जाफरी की बेटी तो अमेरिका में सुरक्षित है और इसका खुलासा स्वयं जाफरी के बेटे ने किया था। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तब उन्होंने हिन्दू समाज की छवि कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नक्सलियों द्वारा हथियार उठाए जाने को भी वे अपवादों की आड़ में न्यायोचित ठहराती है।" यदि मैं एक विस्थापित पुरूष होती जिसकी पत्नी बलात्कार का शिकार हो चुकी है तथा उसकी जमीन छी ली गई है और अब जिसे पुलिस बल का सामना करना पड़ रहा है तो मेरे द्वारा हथियार उठाया जाना न्यायोचित होगा।"
नक्सली कहां के विस्थापित है? यदि नक्सली विकास और अवसरों से वंचित होकर हताश हुए आदिवासियों का समूह मात्र है तो सरकार द्वारा किये जा रहे विकास कार्यो का विरोध क्यों ? छिटपुट कुटीर उद्योग और कारखाने लगाकर स्थानीय आदिवासियों को रोजगार देने वाले कारोबारियों से जबरन वसुली कर उन्हें पलायन के लिए मजबूर क्यों किया जाता है।
अमेरिका ने 9/11 के आतंकी हमले के बाद एक ओर जहां इस तरह के हमलों की पुनरावृत्ति नहीं होने दी, वही इस अमानवीय कार्य के जिम्मेदार आतंकियों को उनके अंजाम तक भी पहुंचाया। दूसरी ओर भारत संसद और मुम्बई पर हुए हमले के असली गुनाहगारों को पकड़ पाने में नाकाम रहा है और जिन लोगों को गिरफ्तार किया भी गया है, उनमें से एक अफजल गुरू सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद सरकारी मेहमाननवाजी का आनंद ले रहा है तो दूसरे अजमल कसाब को तमाम साक्ष्यों के बावजूद अब तक जिन्दा रखा गया है और उस पर सरकारी सूत्र के अनुसार 35 करोड़ रूपए से ज्यादा धन खर्च हो चुका है। कुछ छद्म सैक्युलर दरिंदे तो अफजल गुरू की फांसी माफ कराने के लिए मुहिम भी चला रहे है उनकी संस्थाओं को संदिग्ध विदेशी स्रोतों से धन और पुरूस्कार मिलते है।
वोट बैंक की राजनीति के कारण कोई भारतीय नेता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को, कोई अफजल गुरू जैसे दुर्दांत आतंकी को तथा कोई आतंकवादी दविंद्र सिंह भुल्लर को राष्ट्रपति की माफी द्वारा फांसी से बचाना चाहता है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में एक तरह से कानून तोड़ने वाले लोगों के मानवाधिकार मामलों की हिमायत करने वाले लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि कोई भी भुखमरी, किसानों की आत्महत्या और आतंकवादी हिंसा में सुरक्षा कर्मियों के मारे जाने की बात क्यों नहीं कर रहा। कई सुरक्षा कर्मियों ने संसद की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिये। क्या किसी ने उनकी भावनाओं के बारे में सोचा। उनके मानवाधिकारों का क्या?
दिल्ली के बाटला हाऊस से लेकर मुम्बई हमले तक ऐसे कई उदाहरण है जो भारत के उन बुद्धिजीवियों के चेहरे को बेनकाब करते है जो सैक्युलरवाद के नाम पर आतंकवादियों का समर्थन कर राष्ट्रद्रौह करते है।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

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