सोमवार, 28 मई 2012

अछूतोद्धारक वीर सावरकर

अछूतोद्धारक वीर सावरकर


स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे तथा इसे एक ऐसी बेड़ी मानते थे जिसमें हिन्दू समाज जकड़ा हुआ है, और जिसके कारण समाज में सिर्फ बिखराव हुआ है तथा हिन्दू धर्म का मार्ग अवरूद्ध हुआ है। उनके अनुसार आदिकाल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। यह कार्य पर आधारित थी तथा शिक्षा एवं कार्य के अनुसार बदलती रहती थी। वैदिक काल में समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने में इसकी भूमिका रही, पर अब धीरे-धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित होने पर यह एक अभिशाप बन गयी है तथा समस्त हिन्दू समाज की एकता में बाधक है। अतः उन्होंने सहभोजों के आयोजन एवं अर्न्तजातीय विवाहों का समर्थन किया। अछूतोद्धार पर उनके और गांधी जी के दृष्टिकोण में एक बड़ा अन्तर था। जहाँ गांधी जी ने दलित जातियों के अत्थान का कार्य करते हुए उन्हें हरिजन शब्द देकर एक अलग वर्ग में रख दिया वहीं वीर सावरकर जी हिन्दुओं में अस्पृश्यता की जिम्मेदार जाति प्रथा के ही उन्मूलन के पक्ष में थे। उनका मानना था कि समाज की यह बुराई तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न अंगों के बीच वैमनस्यता का अन्त इस प्रथा के उन्मूलन से ही होगा। उनके विचार अंदमान की सैल्यूलर जेल से लिखे उनके पत्रों से पुष्ट होते है।
(9मार्च1915 को अपने छोटे भाई नारायण सावरकर को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'एक बात और, हमारी सामाजिक संस्थाओं में सबसे निकृष्ट संस्था है - जाति। जाति-पांति हिन्दुस्थान का सबसे बडा शाप है। इससे हिन्दू जाति के वेगवान प्रवाह के दलदल और मरूभूमि में धँस जाने का भय है। यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि हम जातियों को घटाकर चातुर्वर्ण्य की स्थापना करेंगे। यह न होगा, न होना ही चाहिए। इस पाप को जड़मूल से नष्ट ही कर डालना चाहिए।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1916 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
मैं उस समय को देखने का अभिलाषी हूँ जबकि हिन्दुओं में अर्न्तजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों एवं जातियों की दीवार टूट जायेगी और हमारे हिन्दू जीवन की विशाल सरिता समस्त दलदलों एवं मरूस्थलों को पार करके सदा शक्तिमान एवं पवित्र प्रवाह से प्रवाहित होगी ...... सैंकड़ों वर्षो से हम छोटे-छोटे बच्चों के विवाह करते आये है इस कारण वह बातें नहीं बढ़ पाती जो शरीर, मन और आत्मा की उन्नति करने वाली है, जिसकी जीवनी शक्ति तथा मर्दानगी नष्ट हो चुकी है।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1920 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'मैंने हिन्दुस्थान की जाति पद्धति और अछूत पद्धति का उतना विरोध किया है जितना बाहर रहकर भारत पर शासन करने वाले विदेशियों का।'
अंग्रेजी न्यायालय से दो जन्मों की कालेपानी की सजा पाये वीर सावरकर को कैद से छुडवाने के लिए भारत में राष्ट्रभक्तों की' नेशनल यूनियन' ने वीर सावरकर की रिहाई के लिए पम्फलेट, पत्रक तथा समाचार पत्रों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण निर्मित किया कि गांव-गांव और शहर-नगरों में राजनैतिक बंदी और महान क्रान्तिकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति लोगों में सहानुभूति उमड़ पड़ी। 'सावरकर सप्ताह' मनाया गया और करीब सत्तर हजार हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आन्दोलन कभी नहीं हुआ था। अंत में सरकार को विवश होकर वीर सावरकर को पूरे दस वर्ष तक अंदमान में नारकीय यातनाएं देने के बाद 2 मई 1921 को कालापानी से रत्नागिरि जेल, महाराष्ट्र के लिए भेजना पड़ा। बाद में 6 जनवरी 1924 को उनको जेल से मुक्ति मिली और उन्हें रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर रखा गया। केवल रत्नागिरि जनपद की सीमा में घूमने-फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दे दी गई, इसका लाभ उठाकर उन्होंने रत्नागिरि में अछूतोद्धार, साहित्य सृजन और हिन्दू संगठन का कार्य प्रारंभ किया।
यह कार्य इतनी निष्ठा लगन से किया गया कि वीर सावरकर का रत्नागिरि में नजरबंदी का 13 वर्षो का इतिहास अछूतोद्धार व हिन्दू-संगठन का इतिहास कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में छुआ-छूत उग्ररूप में फैली हुई थी, वीर सावरकर ने सर्वप्रथम इसी विषाक्त कुप्रथा पर प्रहार करने का निश्चय किया। उन्होंने घूम-घूमकर जनपद के विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। वीर सावरकर की तर्कपूर्ण दलीलों से प्रभावित होकर अनेक शिक्षित नवयुवक उनके साथ हो लिए। अवकाश के दिन ये लोग दलित-अस्पृश्य परिवारों में जाते, उनके साथ सहभोज करते, उन्हें उपदेश देते और उनसे साफ-स्वच्छ रहने एवं मद्य-मांस छोड़ने का आग्रह करते। इस पारस्परिक मिलन से अछूतों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही। वीर सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक सम्पन्न सुधारवादी व्यक्ति ने ढाई लाख रूपये व्यय करके रत्नागिरि में 'श्री पतित पावन मन्दिर' का निर्माण करा दिया। इसमें किसी भी जाति, पंथ, वर्ण, सम्प्रदाय का प्रत्येक हिन्दू, चाहे वह अछूत जाति का ही क्यों न हो, पूजा कर सकता है। इस मन्दिर के पुजारी भी अछूत कहे जाने वाली जाति के ही बनाये गये। इस प्रकार वीर सावरकर के इस क्रांतिकारी अछूतोद्धार के कार्य के कारण जातिवाद की दुकान खोले बैठे पाखण्डीयों का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने इसका न केवल विरोध ही किया, अपितु इसमें बाधा डालने का भरसक प्रयत्न भी किया। परंतु वीर सावरकर के औजस्वी साहस के सम्मुख विरोधियों को अपनी हार माननी पड़ी।
वीर सावरकर केवल अछूतोद्धार से ही संतुष्ठ न हुए। ईसाई पादरियों और मुल्लाओं द्वारा भोले-भाले हिन्दुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मान्तरण के विरोध में वीर सावरकर ने शुद्धिकरण आंदोलन चलाकर धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, वे धर्मान्तरण को राष्ट्रान्तर मानते थे। हिन्दू एकता पर उनका स्पष्ट चिंतन था कि जब तक भारत में हिन्दुओं में जाति-पांति का भेदभाव रहेगा, हिन्दू संगठित नहीं हो सकेगा और वे भारत माता की आजादी लेने व उसे सफलतापूर्वक सुरक्षित रखने में सफल नहीं होंगे।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

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