गुरुवार, 5 मई 2011

आजाद हिन्द फौज के संस्थापक आर्यन पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप

राजा महेन्द्र प्रताप एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे ।उनका जन्म 1 दिसम्बर 1886 को मुरसान ( अलीगढ के पास, उत्तरप्रदेश मेँ) के राजा घनश्याम सिँह के घर मेँ हुआ । हाथरस के राजा हरनारायण सिँह ने कोई संतान न होने पर उन्हेँ गोद ले लिया । इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोडकर हाथरस राज्य के राजा बने । जिँद ( हरियाणा ) की राजकुमारी से उनका विवाह हुआ ।
राजा महेन्द्रप्रताप आर्यन पेशवा थे । उन्होँने अपनी आर्य परम्परा का निर्वाह करते हुए 32 वर्ष देश देश से बाहर रहकर, अंग्रेज सरकार को न केवल तरह - तरह से ललकारा बल्कि अफगानिस्तान मेँ बनाई अपनी आजाद हिन्द फौज द्वारा कबाइली इलाकोँ पर हमला करके कई इलाके अंग्रेजोँ से छिनकर अपने अधिकार मेँ ले लिये थे और ब्रिटिस सरकार को क्रान्तिकारियोँ की शक्ति का अहसास करा दिया था ।
1906 मेँ जिँद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता मेँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन मेँ भाग लिया और स्वदेशी का प्रचार करने लगे । उनका दृष्टिकोण विस्तृत था । वह ब्रह्मण - भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष मेँ नहीँ थे । वह जाति, पंथ, वर्ग, रंग आदि भेदोँ को मानवता के विरुद्ध घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे । उन्होँने संस्कारित शिक्षा के लिए वृन्दावन मेँ प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी । जो क्रान्तिकारियोँ की शरणस्थली बना ।
राजा महेन्द्रप्रताप लाला हरदयाल और चंपक रमन पिल्लई जैसे राष्ट्रवादी नेताओँ से निरन्तर संपर्क बनाये हुये थे और उनके द्वारा भेजे जाने वाले हथियारोँ को भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ मेँ न केवल बाटते थे बल्कि उन्हेँ धन भी उपलब्ध कराते थे । इन गतिविधियोँ के चलते वे अंग्रेज जासूसोँ की नजरोँ मेँ चढ चुके थे और यहाँ रहते हुए कोई बडा काम करना, अब उनके लिए संभव नहीँ रह गया था । अतः वे जितनी संपत्ति यहां से ले जा सकते थे, लेकर चुपचाप बिना पासपोर्ट के जर्मनी चले गये ।वहां उन्हेँ बर्लिन समिति का सदस्य बनाया गया । उसके बाद उन्होँने जर्मनी के शासक कैसर से मुलाकात की । कैसर ने उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ हर संभव सहायता देने का वचन दिया । वहां से तुर्की होकर अफगानिस्तान पहुँचे । अफगानिस्तान के अमीर से मुलाकात की और उनसे अफगानिस्तान मेँ अस्थाई आजाद हिन्द सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा । जिसे विचार - विर्मश के पश्चात स्वीकृति प्रदान कर दी गई । अंततः 29 अक्तूबर 1915 को अस्थाई "आजाद हिन्द सरकार" अस्तित्व मेँ आ गई । इस अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिँधी और विदेशमंत्री डा. चंपक रमन पिल्लई को बनाया गया । इसी सरकार के अंतर्गत "आजाद हिन्द फौज" का गठन भी किया गया जिसमेँ सीमावर्ती पठानोँ और कबीलाईयोँ को लेकर छह हजार सैनिक भर्ती किये गये ।
आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजी अधिकार वाले भारतीय क्षेत्रोँ को आजाद कराने के लिये अंग्रेज सेना पर हमला बोल दिया जिसे अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला खाँ की दोगली नीतियोँ के कारण विफलता का सामना करना पडा । तब राजा महेन्द्र प्रताप रुस चले गये और लेनिन से मिले । परन्तु लेनिन ने कोई विशेष सहायता नहीँ की । 1920 से 1946 तक देश की आजादी के लिए विदेशोँ मेँ भ्रमण करते रहेँ ।
राजा महेन्द्र प्रताप एशियाई देशोँ को मिलाकर "आर्यान" की स्थापना के लिए जुट गये और वही तरफ महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस भी "एशियन यूथ एसोसिएशन" की स्थापना कर कुछ ऐसा ही करने की दिशा मेँ बढ रहे थे । यह भी एक संयोग था कि राजा महेन्द्र प्रताप ने 29 अक्तूबर 1915 को अफगानिस्तान मेँ जो बीज बोया था, उसे 28 वर्ष बाद 4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने जापान मेँ विराट रुप से विकसित करके उनके अधूरे सपने को न केवल पूरा कर दिया था बल्कि पूर्ण आजादी का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे राष्ट्रपितामह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के हाथोँ सौप दिया था ।
राजा महेन्द्र प्रताप को मातृभूमि के स्पर्श करने का सौभाग्य 1946 मेँ मिला, वह भारत वापस लौटे । सरदार पटेल की बहिन मणीबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अडडे गई । वे सांसद भी रहे । वे स्वतंत्र भारत मेँ जीवन पर्यँत मानवता का प्रचार करते रहेँ । राजनीतिक कारणोँ से भारतीय इतिहास ने उन्हेँ वह स्थान नहीँ दिया जिसके वह अधिकारी थे ।
- विश्वजीत सिँह 'अनंत'

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - तीन

नेताजी सुभाष की कथित मृत्यु की घोषणा के बाद जवाहर लाल नेहरू ने 1956 मेँ शाहनवाज कमेटी तथा इन्दिरा गांधी ने 1970 मेँ खोसला आयोग द्वारा जांच करवाई तथा दोनोँ जांच रिपोर्टो मेँ नेताजी को उस विमान दुर्घटना मेँ मृत घोषित किया गया । लेकिन जिस देश मेँ यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनोँ आयोगोँ ने बात ही नहीँ की । 1978 मेँ मोरारजी देसाई सरकार ने इन रिपोर्टो को रद्द कर दिया । 1999 मेँ अटलबिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व मेँ तीसरा आयोग बनाया गया । 2005 मेँ ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान की भूमि पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीँ था । मुखर्जी आयोग ने सोनिया गांधी की यूपीए सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौप दी, जिस मेँ उन्होँने कहा है कि नेताजी सुभाष की मृत्यु उस विमान दुर्घटना मेँ होने का कोई प्रमाण नहीँ हैँ । लेकिन यूपीए सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया । कांग्रेसनीत यूपीए सरकार द्वारा इस रिपोर्ट को रद्द किया जाना वीर महात्मा नाथूराम गोडसे के उस वचन की याद दिलाते हैँ जिसमेँ उन्होँने कहा था कि - ' गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न था स्वाधीन, शक्तिशाली और समृद्ध । नेताजी भारत को अखण्ड राष्ट्र के रूप मेँ देखना चाहते थे । लेकिन गांधी - नेहरू की भ्रष्ट साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीतियोँ ने देश का विभाजन करके उनके स्वप्न की हत्या कर दी । दो धर्म - दो देश के आधार पर भारत का विभाजन करा दिया गया जो विश्व की सबसे बडी त्रासदी हैँ । कांग्रेस यदि नेताजी की चेतावनी पर समय रहते ध्यान देती और गांधीवाद के पाखण्ड मेँ न फंसी होती तो देश न बटता तथा मानवता के माथे पर भयानक रक्त - पात का कलंक लगने से बच जाता । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि " आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक गुलामी से छुटकारा ही नहीं हैं , देश की सम्पत्ति का समान बटवारा , जात-पात के बंधनों और सामाजिक ऊँच-नीच से मुक्ति तथा साम्प्रदायिकता और धर्मांधता को जड से उखाड फेंकना ही सच्ची आजादी होगी । "
आप सभी राष्ट्रवादियोँ से विनम्र निवेदन हैँ कि आप सब भी जाति - धर्म, पार्टी - संगठन आदि के भेद को भूलकर नेताजी के अधूरे स्वप्न को पूरा करने की दिशा मेँ अग्रसर होँ । वास्तव मेँ निस्वार्थ भाव से राष्ट्रहित मेँ अपना सर्वस्य न्यौछावर कर देने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सच्चे नायकोँ मेँ से एक थेँ ।
जय हिन्द
जय नेताजी सुभाष
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - दो

उस समय गांधीवादी यही समझते थे कि गांधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या को अपना पूर्ण समर्थन दिया है इसलिए वह आसानी से चुनाव जीत जाएंगे । लेकिन परिणाम उनकी आशा के ठीक विपरीत आया । सुभाष चन्द्र बोस को चुनाव मेँ 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले । गांधीजी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष 203 मतोँ से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये । गांधीजी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैँ । ' गांधी व उनके साथियोँ ने सुभाष को उनके कार्यो मेँ सहयोग करना तो दूर उल्टा उन्हेँ मानसिक रूप से प्रताडित करना शुरू कर दिया । सुभाष ने समझोते की बहुत कौशिश की, लेकिन गांधी व गांधी के सहयोगियोँ ने उनकी एक न मानी । आखिर मेँ परेशान होकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष बाबू ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । और 3 मई 1939 मेँ फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी बना ली । सितम्बर 1939 मेँ यूरोप मेँ महायुद्ध छिड गया और फॉरवर्ड ब्लॉक ने नेताजी सुभाष के नेतृत्व मेँ अंग्रेजोँ के विरूद्ध देश भर मेँ प्रदर्शनोँ का आयोजन किया । 1940 मेँ सुमाष को उनके घर मेँ ही नजरबंद कर दिया गया ।
16 जनवरी 1941 को सुभाष ब्रिटिस सरकार के पहरे को तोडकर भेष बदलकर घर से भाग निकले और अखण्ड भारत को अंग्रेजोँ से मुक्त कराने के प्रयास मेँ अफगानिस्तान, रूस होते हुये जर्मनी पहुँच गये । उन्होँने जर्मनी मेँ भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिन्द रेडियोँ की स्थापना की । इसी दौरान सुभाष चन्द्र बोस नेताजी के उपनाम से जाने जाने लगे । 29 मई 1942 को नेताजी एडॉल्फ हिटलर से मिले । हिटलर ने उन्हेँ भारत का उच्च प्रतिनिधि स्वीकार किया और बिना शर्त अपना समर्थन दिया । कुछ वर्ष पूर्ण हिटलर ने ' माईन काम्फ ' नाम से अपना आत्मचरित्र लिखा था जिसमेँ उन्होँने भारत और भारतीय लोगो पर कुछ आपत्तिजनक बाते लिखी थी । नेताजी ने निर्भिक स्वर मेँ हिटलर से अपना विरोध जताया तो हिटलर ने खेद प्रकट किया और अगले संस्करण मेँ भारतीय दृष्टिकोण को बदल देने का वचन दिया ।
13 मई 1943 को नेताजी सुभाष जापान पहुँच गये और वहाँ के प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो से 10 जून 1943 को मुलाकात की । जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ सहकार्य करने का आश्वासन दिया । जून 1943 मेँ नेताजी ने टोकियो रेडियोँ से घोषणा की कि ' अंग्रेजोँ से यह आशा करना व्यर्थ हैँ कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड देगे, हमेँ स्वयं भारत के भीतर व बाहर से भी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करना होगा ।
4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष ने महान प्रवासी क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से आजाद हिन्द फौज का दायित्व ग्रहण किया । 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाष ने सिंगापुर मेँ स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार की स्थापना की । कुछ ही दिनोँ मेँ विश्व के नौ देशोँ जापान, जर्मनी, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, बर्मा, थाईलैण्ड और आयरलैण्ड ने ' आजाद हिन्द सरकार ' को मान्यता दे दी । जापान ने अंडमान तथा निकोबार द्वीप इस अस्थाई सरकार को दे दिये । नेताजी ने अंडमान का शहीद द्वीप और निकोबार का स्वाराज्य द्वीप नामाकरण करके 30 दिसम्बर 1943 को वहाँ स्वतंत्र भारत का ध्वज फैरा दिया ।
4 फरवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने नेताजी के नेतृत्व मेँ जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिस सेना पर भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय क्षेत्रोँ को अंग्रेजोँ से मुक्त करा लिया । 22 सितम्बर 1944 को नेताजी सुभाष ने रंगून के जुबली हॉल मेँ अपने भाषण मेँ राष्ट्रभक्तोँ का आह्वान करते हुये कहा था कि - ' हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज मेँ हैँ, तुम मुझे खून दोँ, मैँ तुम्हेँ आजादी दूंगा, यह स्वातंत्र्य देवी की मांग हैँ । ' किन्तु दुर्भाग्यवश युद्ध मेँ आगे जाकर अंग्रेजोँ का पलडा भारी पडा और दोनो सेनाओँ को पीछे हटना पडा । ऐसे समय मेँ गांधीजी ने जिनके हाथ मेँ उस समय करोडोँ भारतीयोँ की नब्ज थी और जिनसे आजाद हिन्द फौज को काफी मदद मिल सकती थी सुभाष की सहायता के लिए कुछ नहीँ किया बल्कि गांधी के प्रिय जवाहर लाल नेहरू ने 24 अप्रैल 1945 को गुवाहाटी की एक जनसभा मेँ कहा कि - ' यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान की सहायता से भारत पर हमला किया तो मैँ स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लडकर रोकने जाऊँगा । '
द्वितीय विश्वयुद्ध मेँ जापान और जर्मनी की हार और भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ के प्रति गांधी के नकारात्मक दृष्टिकोण को देखते हुये सुभाष ने अखण्ड भारत की आजादी के लिये रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया । 18 अगस्त 1945 को नेताजी ने हवाई जहाज से मांचुरिया के लिए उडान भरी । इस उडान के बाद से नेताजी का कुछ भी प्रमाणित पता नहीँ हैँ ।
23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने तथाकथित विमान दुर्घटना मेँ नेताजी सुभाष की मृत्यु का समाचार प्रसारित किया । जिस पर स्वभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि नेताजी सुभाष यदि 18 अगस्त 1945 को मर चुके थे तो उन्हेँ 1999 तक राष्ट्र संघ का युद्ध अपराधी घोषित क्योँ किया गया ?
क्रमश ......
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - एक

23 जनवरी 1897 को कटक के प्रसिद्ध अधिवक्ता जानकीनाथ बोस के घर जन्मेँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस बाल्यकाल से ही निर्भय, बलवान एवं साहसी थे । इनकी माता प्रभावती एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी । अंग्रेजी प्रबंधकोँ द्वारा भारतीयोँ पर किये जा रहे अत्याचारोँ ने तथा धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द के भाषणोँ एवं लेखोँ ने उनके अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला, अल्प आयु मेँ ही उन्होँने ग्राम सुधार के क्रान्तिकारी कार्यो मेँ भाग लेना शुरू कर दिया । सुभाष ने 1913 मेँ मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । 1919 मेँ कोलकात्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की । 15 सितम्बर 1919 को सुभाष इंग्लैँड गये और कैंब्रिज विश्वविद्यालय मेँ प्रवेश ले लिया । आई. सी. एस. की परीक्षा पास कर लेने पर अंग्रेजी सरकार ने उन्हेँ लन्दन मेँ ही नौकरी दे दी । लेकिन सुभाष ने भारत की जनता पर अंग्रेजी सरकार द्वारा किये जा रहे अत्याचारोँ को देखते हुये अंग्रेजोँ की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और 16 जुलाई 1921 को भारत वापस लौटकर मातृभूमि को आजाद करवाने के कार्य मेँ जुट गये । 20 जुलाई 1921 को उन्होँने गांधीजी से मुलाकात की और अपना समर्थन दिया । सुभाष अपने भारत प्रवास के दौरान ग्यारह बार अंग्रेजोँ की कैद मेँ रहें । आजाद हिन्द फौज के पुर्नसंस्थापक एवं आजाद हिन्द सरकार के पुरोधा नेताजी सुभाष ने रंगून के जुबली हॉल मेँ अपने भाषण मेँ राष्ट्रभक्तोँ का आह्वान करते हुये कहा था कि - ' हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज मेँ हैँ, तुम मुझे खून दोँ, मैँ तुम्हेँ आजादी दूंगा । '
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सुभाष को प्रेरित करने मेँ चितरंजन दास का विशेष योगदान था । 1922 मेँ सुभाष कलकत्ता महानगर पालिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चुने गये । सुभाष ने अपने कार्यकाल के दौरान कोलकात्ता महापालिका का पूरा तंत्र और कार्यपद्धति को ही बदल डाला । कोलकात्ता के रास्तोँ के नाम बदलकर, उन्हेँ भारतीय नाम दिये गये । स्वतंत्रता संग्राम मेँ प्राण न्योछावर करने वालोँ के परिवार के सदस्योँ को नौकरी दी जाने लगी । बहुत ही कम समय मेँ सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण शक्तिशाली युवा नेता बन गये । युवा वर्ग के प्रति उनके विचार काफी दृढ थेँ, वे सदैव युवाओँ को अपने आन्दोलन से जोडते रहेँ । जवाहर लाल नेहरू के साथ मिलकर सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकोँ की इंडिपेडन्स लिग शुरू की ।
1928 मेँ कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन मेँ सुभाष ने गणवेश धारण करके उस समय के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी । गांधीजी उन दिनोँ पूर्ण स्वतंत्रता की मांग से सहमत नहीँ थे और इस अधिवेशन मेँ उन्होँने अंग्रेजी सरकार की अपनिवेशी स्वतंत्रता की सन्धि को स्वीकार कराने की ठान ली थी । लेकिन सुभाष को पूर्ण स्वतंत्रता से पिछे हटना स्वीकार न था । सुभाष ने इस सन्धि का विरोध करते हुये कहा कि हम भारत की पूर्ण आजादी से कम कोई भी बात स्वीकार नहीँ करेंगे । हमेँ अधूरी आजादी स्वीकार नहीँ हैँ । हमेँ पूर्ण स्वतंत्रता चाहिये और हम इसे प्राप्त करने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैँ ।
26 जनवरी 1931 के दिन कोलकात्ता मेँ सुभाष स्वतंत्रता के उपासकोँ के एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ चलायी और सुभाष को घायल कर दिया । जब सुभाष जेल मेँ थे तो गांधीजी ने चतुराई पूर्वक क्रान्तिकारियोँ मेँ आपसी फूट डालने के लिये अंग्रेजी सरकार से समझोता किया और सब कांग्रेसी कैदियोँ को रिहा किया गया । लेकिन अंग्रेजी सरकार ने भगतसिंह जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारियोँ को रिहा करने से इन्कार कर दिया । भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी माफ कराने के लिये गांधीजी ने अंग्रेजी सरकार से बात तो की लेकिन उन्हेँ बचाने के लिये कोई दृढ इच्छाशक्ति प्रकट नहीँ की । सुभाष चाहते थे कि इस मुद्दे पर गांधीजी अंग्रेजी सरकार के साथ किया गया समझोता तौड देँ । लेकिन गांधीजी अंग्रेजी सरकार के साथ किया गया समझोता तौडने को तैयार न हुये । अन्त मेँ भगतसिंह और उनके साथियोँ को नियम विरूद्ध 24 मार्च 1931 को प्रातःकाल दी जाने वाली फाँसी 23 मार्च को शाम मेँ ही दे दी गई, सारा देश इस अन्याय के खिलाप उठ खडा हुआ, लेकिन गांधीजी शान्त रहेँ । भगतसिंह को न बचा पाने के कारण सुभाष तथा अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की नीतियोँ के विरोधी हो गये ।
नेताजी सुभाष मेँ नेतृत्व के सभी गुण विद्यमान थे । प्रखर देशभक्ति, त्याग की भावना, कार्य निष्पादित करने की लगन, दार्शनिकता और दूरदर्शी सोच । अतः 1938 मेँ सुभाष को कांग्रेस के 51 वेँ अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया । अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल मेँ सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की और जवाहर लाल नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया । इसी दौरान यूरोप मेँ द्वितीय विश्व युद्ध के बादल छा गए । सुभाष चाहते थे कि इंग्लैँड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत की आजादी की लडाई को ओर तेज किया जाये । यह भारत की आजादी के लिए स्वर्णिम अवसर है । लेकिन गांधीजी को उनके स्वतंत्रता के हेतुक कार्यकलाप पसंद नहीँ आये और वह उनके विचारोँ से सहमत नहीँ हुये ।
1939 मेँ जब कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो अखण्ड भारत की पूर्ण आजादी के विषय पर किसी के दबाव के सामने न झुके । ऐसा कोई व्यक्ति सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहा । लेकिन गांधीजी जिस बात को अपने अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीतियोँ पर नहीँ चले अतः गांधीजी व उनके साथी सुभाष को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे । गांधीजी ने सुभाष के खिलाप पट्टाभी सीतारमैय्या को चुनाव लडाया । किन्तु उस समय गांधी से कही ज्यादा लोग सुभाष को चाहते थे । उस समय सिर्फ सुभाष ही थे जिन्होँने लोगो के दिलोँ पर राज किया था ।
क्रमश ......
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

मंगलवार, 3 मई 2011

इंडियन नेवी का मुक्ति संग्राम और भारत की स्वतंत्रता

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज द्वार भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया था । उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की ।
नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई , कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया । महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया । उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान - स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी । ऐसे समय में भारतीय नेताओं ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड रहे उन वीर सैनिकों का कोई साथ नहीं दिया , जबकि देश की आम जनता ने उन सैनिकों को पूरा सहयोग दिया । क्रान्तिकारी नौसैनिकों के नेतृत्वकर्ता ' श्री बी. सी. दत्त ' ने खेद प्रकट किया कि उनकों प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिए कोई राष्ट्रीय नेता उनके पास नहीं आया , राष्ट्रीय नेता केवल अंग्रेजों के साथ लम्बी वार्ता करने में तथा सत्रों व बैठकों के आयोजन में विश्वास रखते है । उनसे क्रान्तिकारी कार्यवाही की कोई भी आशा नहीं की जा सकती ।
नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा की थी व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया था । मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला , अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि -
" यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे । "
क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था ? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये , नंगी पीठ पर कोडे खाए , भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था ?
इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि -
" हमने रॉयल इंडियन नेवी को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित पर दिया है , किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है । इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है । हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है । "
भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया , लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जडे हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया । अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।
तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि -
" हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । "
( दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ - 125 , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा )
नेताजी सुभाष से प्रेरणाप्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था । इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री ' लार्ड ' एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ' पी. बी. चक्रवर्ती ' जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है । जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे - सीधे पूछा कि " गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया ? "
तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया , जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण " इंडियन नेवी का विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना , थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था । " अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि " गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम् ही रहा । "
एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है -
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - 3 , लेखक - डॉ. आर. सी. मजूमदार ।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा ।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'