शुक्रवार, 29 जून 2012

भारत के छद्म सेक्यूलर नेताओं द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर भारत को नष्ट करने का भयानक षडयन्त्र !

प्रिय राष्ट्र प्रेमियों -
एक वो समय था जब गाय माँ की रक्षा के लिये 1857 ईश्वी में क्रांति हो गई थी और हमारे पूर्वजों ने 4 लाख गद्दारों व अंग्रेजों को काट डाला था, ओर एक समय ये है जब 3500 हजार कत्लखानों में रोज माँ को काटा जा रहा है और हम तथाकथित अहिंसा व सेक्यूलरिज्म की आड़ में नपुंसकता की चादर ओढ़े घरों में दुबके बैठे है। एक प्रदेश की मुख्यमंत्री सार्वजनिक मंच से 'गौ मांस खाना मेरा मौलिक अधिकार है' कहने का दुश्साहस करती है, किन्तु देश में उसके खिलाप कोई सशक्त प्रतिक्रिया नहीं आती, कारण भारत के नेतृत्व का भारतीयता विरोधी छद्म सेक्यूलरों के हाथों में होना, इनके द्वारा नित्य प्रति भारत के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने के कुचक्र रचे जा रहे है। देश की सीमाओं, संस्कृति, पुरातन धरोहर, हमारी शिक्षा पद्धति, हमारे मंदिर, साधु - सन्यासी, हमारी परंपराओं एवं राष्ट्रीय स्वाभिमान पर सदैव सुनियोजित रीति से बहु - आयामी आक्रमण किये जा रहे है। हमारा देश छद्म सेक्यूलर नेताओं के कारण भीषण संकट के दौर से गुजर रहा है।
भारत में छद्म सेक्यूलरिज्म की संगठित शुरूआत 20 अगस्त 1920 को मोहनदास गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन के नाम से खिलापत आंदोलन (अरबपंथी कट्टर जेहादियों द्वारा तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया एक विशुद्ध साम्प्रदायिक आंदोलन, जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई संबंध नहीं था।) को अपना नेतृत्व प्रदान करने से हुई। गांधी के शब्दों में - मुसलमानों के लिए स्वराज्य का अर्थ है - जो होना ही चाहिए खिलापत की समस्या के लिए भारत की क्षमता का, प्रभाव पूर्ण व्यवहार, इस दृष्टिकोण के साथ सहानुभूति न रखना एकदम असंभव है, खिलापत आंदोलन की पूर्ति के लिए आवश्यक लगने पर मैं स्वराज प्राप्ति की कार्यवाही को सहर्ष स्थगित करने के लिए आग्रह कर दूंगा। जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो अरबपंथी जेहादियों का गुस्सा हिन्दुओं पर उतरा, मोपला में हिन्दुओं की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बड़ा हमला हुआ। हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया, स्त्रियों के अपमान हुये। गांधी जो अपनी नीतियों के कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे। प्रत्युत यह कहना शुरू कर दिया कि मालाबार में हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बनाया गया। यद्यपि उनके मुस्लिम मित्रों ने यह स्वीकार किया कि सैकड़ों घटनाऐं हुई है। और उल्टे मोपला मुसलमानों के लिए फंड शुरू कर दिया।
मोहनदास गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआता में हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया। लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि कुछ साम्प्रदायिक मुसलमान इसे पसंद नहीं करते, तो वे उन्हें खुश करने के लिए हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी (फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू भाषा) का प्रचार करने लगे। बादशाह दशरथ, शहजादा राम, बेगम सीता, मौलवी वशिष्ठ जैसे नामों का प्रयोग होने लगा। सम्प्रदाय विशेष को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी भाषा विद्यालयों में पढ़ाई जाने लगी। इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म हुआ, जिसके मूल से ही उन्नीसवीं सदी की सबसे भयानक त्रासदी साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुस्थान का पाकिस्तान और भारत के रूप में विभाजन हुआ, जिसमें लगभग 25 लाख निर्दोष लोगों को अपने प्राण गवाने पड़े।
14 - 15 जून 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में हिन्दुस्थान विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था कि गांधी ने वहां पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन कराया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं कहा था कि देश का बटवारा उनकी लाश पर होगा। देश का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन हुआ, मुसलमानों का पाकिस्तान और हिन्दुओं का भारत, तो जिन्ना ने सम्पूर्ण साम्प्रदायिक जनसंख्या के स्थानांतरण की बात रखी, जिसे गांधी और नेहरू ने अस्वीकार कर दिया। नास्तिक नेहरू ने हिन्दू विद्वेषवश भारत को हिन्दू राष्ट्र न बनाकर सेक्यूलर राष्ट्र बना दिया। विभाजन के पश्चात भारत में कुल 3 करोड़ मुस्लिम जनसंख्या थी, जो आज बढ़कर 23 करोड़ हो गयी है, दूसरी ओर पाकिस्तान में हिन्दुओं की जनसंख्या 21 प्रतिशत थी, जो अब घटकर 1.4 प्रतिशत रह गयी है। तुर्क और मुगलों की प्रापर्टी की सुरक्षा व्यवस्था के लिए वफ्फ तैयार किया गया और और उनको पाकिस्तान में प्रापर्टी वफ्फ के द्वारा सौपी गयी और कमी समझने पर उनकी जमीन का पेमेन्ट भी किया गया। मुसलमानों के हिस्से की जमीन पाकिस्तान में चली गयी और वफ्फ के द्वारा मुसलमानों को सभी सुविधाऐं दी गयी, परन्तु पाकिस्तान से भारत आने वाले हिन्दुओं के लिये कुछ नहीं किया गया। आखिर ऐसा विद्वेष हिन्दुओं के साथ क्यों किया गया और यह विद्वेष आज भी जारी क्यों है ! जो मुसलमान पाकिस्तान चले गये उनकी संपत्ति की खातिर सरकार फिर ऐसा कानून बनाना चाहती है कि वह संपत्ति उन पर पहुँच जाये। मुगलकाल में हिन्दुओं के लिए नियम अलग और मुस्लिमों के लिए अलग होता था, आज भी वह नियम लागू है, जब कोई हिन्दू मेला या तीर्थयात्रा होती है तो टैक्स या किराया बढ़ा दिया जाता है और मुसलमानों को हज यात्रा में आर्थिक अनुदान दिया जाता है। छात्रवृत्ति, बैंक लोन, शिक्षा, रोजगार आदि क्षेत्रों में सम्प्रदायिक तुष्टिकरण व मजहबी आरक्षण की भेदभाव पूर्ण नीति अपनायी जाती है। इसपर स्वयं भारत का सुप्रीम कोर्ट सभी भारतीय नागरिकों के लिए समान कानून बनाने का सुझाव दे चुका है तथा साम्प्रदायिक समुदायों के पर्सनल लॉ में बदलाव नहीं करने पर केन्द्र सरकार को लताड़ चुका है। लेकिन फिर भी भारत का छद्म सेक्यूलर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के समस्त संसाधनों पर पहला अधिकार एक सम्प्रदाय विशेष (मुसलमानों) का बताता है। साम्प्रदायिक आधार पर भारत को नष्ट करने के लिए कट्टर साम्प्रदायिक चरित्र वाले व्यक्तियों की सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद गठित कर सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केन्द्रित हिंसा निवारण विधेयक 2011 बनाया जाता है तो कभी राजिन्द्र सच्चर के नेतृत्व में कमेटी गठित कर मुसलमानों के लिए विशेषाधिकार की बात की जाती है।लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान कहते है कि असली प्रजातंत्र हम जब समझेगें जब देश का प्रधानमंत्री मुसलमान होगा। हैदराबाद का एक विधायक मौलाना ओवैसी दुर्गा मंदिर में बजने वाले घण्टे को गैर इस्लामी बताकर प्रतिबंधित कराने का प्रयास करता है, तो बरेली की खचाखच भरी एक चुनावी सभा में एक मौलवी सार्वजनिक रूप से कहता है कि शहजिल इस्लाम (प्रत्यासी) को वोट देकर इतना मजबूत कर दो कि वो गैर मुस्लिम का सिर कलम कर सके। चुनाव जितने पर विधायक शहजिल इस्लाम ओसामा बिन लादेन को आतंकी नहीं जेहादी बताता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस प्रकार पहले तलवार के बल पर कत्ले आम मचाकर नंगा नाच होता था, मतांतरण कराया जाता था, कच्चे चमड़े के बोरों में जीवित लोगों को ठूँस - ठूँस भरकर सीलकर तडफते हुये मरने के लिये डाल दिया जाता था, नारियों का शील भंग किया जाता था, इन जेहादियों के आतंक से कन्याओं की भ्रुण हत्या कर दी जाती थी तथा नारियाँ सामूहिक रूप से एकत्र होकर अग्नि में प्राण गवाँ देती थी, जैसे मुगलकाल में हिन्दुओं के लिए नियम अलग और मुसलमानों के लिए अलग थे आज भी वो प्रक्रिया जारी है । जब हकीकत को मौत की सजा सुनाई गई तो हकीकत ने कहा अगर यह बोलने पर मैं दोषी हूँ तो मेरे से पहले यह मुस्लिम बच्चे दोषी है , जिन्होनें दुर्गा माता के लिए यह शब्द कहे थे मैंने तो केवल उनके शब्द दोहराये है। मुसलमान सेक्यूलरिज्म को नहीं मानता है और सरकार सेक्यूलरिज्म को मानती है तो मजहब (आधुनिक शब्दों में धर्म) के नाम पर आरक्षण क्यों देती है। सरकार में बैठे हुये व्यक्ति मजहब के आधार पर आतंकवादियों की मदद क्यों करते है। बाटला हाऊस में इस्पेक्टर शर्मा आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो जाते है, इस्पेक्टर शर्मा के बलिदान को कोई महत्व नहीं दिया जाता, उल्टा कांग्रेस का महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जिले के सरजूपुर ग्राम में आतंकवादियों के घर जाकर मुठभेड़ को फर्जी बताता है और उनका उत्साहवर्धन करता है कि हम स्पेशल अदालत बैठाकर आपके बच्चों को न्याय दिलायेगे। हापुड़ के पास मंसूरी ग्राम में आतंकवादियों की सूचना मिलने पर पुलिस छापा मारती है तो एक आतंकवादी उसी समय गाडी में बैठकर आता है तो गाडी ड्राइवर व मकान मालिक को भी पुलिस हिरासत में ले लेती है तो सेक्यूलर नेता चिल्लाते है कि मानव अधिकार का हनन हो रहा है। इसी प्रकार एक दरगाह में 40 आतंकवादी थे तो सरकार कहती है दरगाह पर हमला मत करना और मौका पाकर आतंकवादी फरार हो जाते है, स्वर्ण मंदिर को तो तहस नहस कर सकती है सरकार लेकिन दरगाह में आतंकवादी पाकर हमली नहीं कर सकती। जामा मस्जिद का इमाम कहता है कि मैं आई एस आई का एजेन्ट हूँ सरकार में हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करे। एक योगगुरू काले धन के लिए शांतिपूर्वक अनशन करता है तो सरकार सोते हुये बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गो पर घिनौने तरीके से बल प्रयोग करती है। हिन्दू साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को कोई पुष्ट प्रमाण न मिलने पर भी अमानवीय यातनाऐ दी जाती है और आतंकवादियों को बिरयानी खिलायी जाती है, जामा मस्जिद के इमाम के नाम पर गर्दन नीची कर ली जी जाती है।
सरकार की भारत विरोधी मानसिकता देखिये भारतीय नगरों के नाम अरब साम्राज्यवादी आक्रांताओं के नाम पर रखे गये, भारतीय महापुरूषों को हाशिये पर फेंक दिया गया, देखिये विजयनगर हिन्दू राज्य था उसका नाम बदलकर सिकंदराबाद रख दिया गया। महाराणी कर्णावती के नाम से नगर का नाम कर्णावती रखा गया परन्तु इसका नाम बदलकर क्रुर आतंकी के नाम पर अहमदाबाद रख दिया गया और अकबर ने प्रयाग का नाम बदलकर इलाहाबाद रख दिया और साकेतनगर जो राम के राज्य से नाम था उसे बदलकर फैजाबाद कर दिया गया, शिवाजी नगर का नाम बदलकर आतंकी औरंगजेब के नाम पर औरंगाबाद कर दिया गया, लक्ष्मीनगर का नाम बदलकर नबाब मुजफ्फर अली के नाम पर मुजफ्फरनगर रख दिया, भटनेरनगर का नाम गाजियाबाद रख दिया, इंद्रप्रस्थ का नाम दिल्ली रख दिया गया। इसी प्रकार आज भी हमारे उपनगरों व रोडों के नाम आतंकवादियों के नाम पर रखे जा रहे है, तुगलक रोड, अकबर रोड, औरंगजेब रोड, आसफ अली रोड, शाहजहाँ मार्ग, जहागीर मार्ग, लार्ड मिन्टो रोड, लारेन्स रोड, डलहोजी रोड आदि - आदि। जरा विचार करो, नीच किस्म के आतंकवादियों के नामों का इस प्रकार से भारत पर जबरदस्ती थोपा जाना एक षडयन्त्र है नहीं है क्या, यह वैचारिक गुलामी का प्रतिक है। अयोध्या के श्री राम मंदिर को विश्व जानता है कि यहां राम का जन्म हुआ और उसका भव्य मंदिर था, एक अरबपंथी लुटेरा जेहादी सेना लेकर आया उसने लूट मचाई, भारतीय स्वाभिमान को नीचा दिखाने के लिए उसने मंदिर को तोड दिया, लुटेरा भी चला गया और देश का एक भाग भी चला गया, परन्तु फिर भी मुकदमा भारतीय स्वाभिमान के प्रतिक श्रीराम और एक लुटेरे के बीच में ? कैसी है यह आजादी !
आज भारतीयों की मानसिकता देखकर मुझे दुःख होता है और मैं विचार करता हूँ कि जब आर्य महान थे तो उनकी संतान इतनी निकृष्ट कैसे हो गई। जब राष्ट्रगीत वंदे मातरम् पर कुछ संकिर्ण विचारधारा के व्यक्ति आपत्ति जताते है तो तुरंत वंदे मातरम् गायन को स्वैच्छिक कर दिया जाता है और राष्ट्रगान जन गन मन जो जार्ज पंचम का स्वागत गीत था, उस पर कोई आपत्ति नहीं सुनी जाती। इसी प्रकार भारत माता व हिन्दू देवी - देवताओं की मूर्तियां बनाकर भारतीयता को अपमानित करने वाले को सहयोग और उसके खिलाप बोलने वालों पर मुकदमे। आज भारतीय हिन्दू समाज के छद्म सेक्यूलर नेता तात्कालिक लाभ के लिए देश को गद्दारों के हवाले करने का काम कर रहे है। भारत के सात राज्यों में तो हिन्दू अल्पसंख्य हो ही चुका है, अब सम्पूर्ण भारत की बारी है। हे भारत वंशियों अभी भी समय है चेत जाओं, वरना आने वाले समय में तुमको भयंकर यातनाओं का शिकार होना पडेगा और तुम्हारी बहन - बेटियों को जेहादी विधर्मीयों की रखैल बनकर रहना पडेगा, इसका इतिहास साक्षी है।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
वन्दे मातरम्
जय माँ भारती ।

सोमवार, 28 मई 2012

अछूतोद्धारक वीर सावरकर

अछूतोद्धारक वीर सावरकर


स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे तथा इसे एक ऐसी बेड़ी मानते थे जिसमें हिन्दू समाज जकड़ा हुआ है, और जिसके कारण समाज में सिर्फ बिखराव हुआ है तथा हिन्दू धर्म का मार्ग अवरूद्ध हुआ है। उनके अनुसार आदिकाल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। यह कार्य पर आधारित थी तथा शिक्षा एवं कार्य के अनुसार बदलती रहती थी। वैदिक काल में समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने में इसकी भूमिका रही, पर अब धीरे-धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित होने पर यह एक अभिशाप बन गयी है तथा समस्त हिन्दू समाज की एकता में बाधक है। अतः उन्होंने सहभोजों के आयोजन एवं अर्न्तजातीय विवाहों का समर्थन किया। अछूतोद्धार पर उनके और गांधी जी के दृष्टिकोण में एक बड़ा अन्तर था। जहाँ गांधी जी ने दलित जातियों के अत्थान का कार्य करते हुए उन्हें हरिजन शब्द देकर एक अलग वर्ग में रख दिया वहीं वीर सावरकर जी हिन्दुओं में अस्पृश्यता की जिम्मेदार जाति प्रथा के ही उन्मूलन के पक्ष में थे। उनका मानना था कि समाज की यह बुराई तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न अंगों के बीच वैमनस्यता का अन्त इस प्रथा के उन्मूलन से ही होगा। उनके विचार अंदमान की सैल्यूलर जेल से लिखे उनके पत्रों से पुष्ट होते है।
(9मार्च1915 को अपने छोटे भाई नारायण सावरकर को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'एक बात और, हमारी सामाजिक संस्थाओं में सबसे निकृष्ट संस्था है - जाति। जाति-पांति हिन्दुस्थान का सबसे बडा शाप है। इससे हिन्दू जाति के वेगवान प्रवाह के दलदल और मरूभूमि में धँस जाने का भय है। यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि हम जातियों को घटाकर चातुर्वर्ण्य की स्थापना करेंगे। यह न होगा, न होना ही चाहिए। इस पाप को जड़मूल से नष्ट ही कर डालना चाहिए।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1916 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
मैं उस समय को देखने का अभिलाषी हूँ जबकि हिन्दुओं में अर्न्तजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों एवं जातियों की दीवार टूट जायेगी और हमारे हिन्दू जीवन की विशाल सरिता समस्त दलदलों एवं मरूस्थलों को पार करके सदा शक्तिमान एवं पवित्र प्रवाह से प्रवाहित होगी ...... सैंकड़ों वर्षो से हम छोटे-छोटे बच्चों के विवाह करते आये है इस कारण वह बातें नहीं बढ़ पाती जो शरीर, मन और आत्मा की उन्नति करने वाली है, जिसकी जीवनी शक्ति तथा मर्दानगी नष्ट हो चुकी है।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1920 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'मैंने हिन्दुस्थान की जाति पद्धति और अछूत पद्धति का उतना विरोध किया है जितना बाहर रहकर भारत पर शासन करने वाले विदेशियों का।'
अंग्रेजी न्यायालय से दो जन्मों की कालेपानी की सजा पाये वीर सावरकर को कैद से छुडवाने के लिए भारत में राष्ट्रभक्तों की' नेशनल यूनियन' ने वीर सावरकर की रिहाई के लिए पम्फलेट, पत्रक तथा समाचार पत्रों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण निर्मित किया कि गांव-गांव और शहर-नगरों में राजनैतिक बंदी और महान क्रान्तिकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति लोगों में सहानुभूति उमड़ पड़ी। 'सावरकर सप्ताह' मनाया गया और करीब सत्तर हजार हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आन्दोलन कभी नहीं हुआ था। अंत में सरकार को विवश होकर वीर सावरकर को पूरे दस वर्ष तक अंदमान में नारकीय यातनाएं देने के बाद 2 मई 1921 को कालापानी से रत्नागिरि जेल, महाराष्ट्र के लिए भेजना पड़ा। बाद में 6 जनवरी 1924 को उनको जेल से मुक्ति मिली और उन्हें रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर रखा गया। केवल रत्नागिरि जनपद की सीमा में घूमने-फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दे दी गई, इसका लाभ उठाकर उन्होंने रत्नागिरि में अछूतोद्धार, साहित्य सृजन और हिन्दू संगठन का कार्य प्रारंभ किया।
यह कार्य इतनी निष्ठा लगन से किया गया कि वीर सावरकर का रत्नागिरि में नजरबंदी का 13 वर्षो का इतिहास अछूतोद्धार व हिन्दू-संगठन का इतिहास कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में छुआ-छूत उग्ररूप में फैली हुई थी, वीर सावरकर ने सर्वप्रथम इसी विषाक्त कुप्रथा पर प्रहार करने का निश्चय किया। उन्होंने घूम-घूमकर जनपद के विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। वीर सावरकर की तर्कपूर्ण दलीलों से प्रभावित होकर अनेक शिक्षित नवयुवक उनके साथ हो लिए। अवकाश के दिन ये लोग दलित-अस्पृश्य परिवारों में जाते, उनके साथ सहभोज करते, उन्हें उपदेश देते और उनसे साफ-स्वच्छ रहने एवं मद्य-मांस छोड़ने का आग्रह करते। इस पारस्परिक मिलन से अछूतों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही। वीर सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक सम्पन्न सुधारवादी व्यक्ति ने ढाई लाख रूपये व्यय करके रत्नागिरि में 'श्री पतित पावन मन्दिर' का निर्माण करा दिया। इसमें किसी भी जाति, पंथ, वर्ण, सम्प्रदाय का प्रत्येक हिन्दू, चाहे वह अछूत जाति का ही क्यों न हो, पूजा कर सकता है। इस मन्दिर के पुजारी भी अछूत कहे जाने वाली जाति के ही बनाये गये। इस प्रकार वीर सावरकर के इस क्रांतिकारी अछूतोद्धार के कार्य के कारण जातिवाद की दुकान खोले बैठे पाखण्डीयों का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने इसका न केवल विरोध ही किया, अपितु इसमें बाधा डालने का भरसक प्रयत्न भी किया। परंतु वीर सावरकर के औजस्वी साहस के सम्मुख विरोधियों को अपनी हार माननी पड़ी।
वीर सावरकर केवल अछूतोद्धार से ही संतुष्ठ न हुए। ईसाई पादरियों और मुल्लाओं द्वारा भोले-भाले हिन्दुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मान्तरण के विरोध में वीर सावरकर ने शुद्धिकरण आंदोलन चलाकर धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, वे धर्मान्तरण को राष्ट्रान्तर मानते थे। हिन्दू एकता पर उनका स्पष्ट चिंतन था कि जब तक भारत में हिन्दुओं में जाति-पांति का भेदभाव रहेगा, हिन्दू संगठित नहीं हो सकेगा और वे भारत माता की आजादी लेने व उसे सफलतापूर्वक सुरक्षित रखने में सफल नहीं होंगे।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

सार्वभौमिक सनातन वैज्ञानिक नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की हार्दिक शुभकामनाऐं

सम्पूर्ण मानव जाति को सार्वभौमिक सनातन वैज्ञानिक नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की हार्दिक शुभकामनाऐं ।
ॐ लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः ।

बुधवार, 21 मार्च 2012

आचार्य कृपलानी और उनकी जाति ?

रेल यात्रा कर रहे एक तिलकधारी सेठजी ने जब अपना भोजन का डिब्बा खोलना चाहा तो पास ही बैठे खद्दरधारी नेता को देख उन्हें शंका हुई । उन्होंने पूछा , ' नेताजी , आप किस जाति के है ? '
' जाति न पूछो साधू की , पूछ लीजिए ज्ञान ' यह कहावत क्या आपने नहीं सुनी ? नेताजी ने प्रश्न किया । ' साधू से नहीं पूछेंगे , पर आप तो गेरूवे कपड़े नहीं पहने हो । खादी तो आज कल मेहतर से लेकर ब्रह्मण , बनिये सभी नेतागिरी चमकाने के लिए पहनते है । ' सेठजी ने उत्तर दिया ।
' नहीं सेठजी , जाति बताने या छुपाने से कुछ नहीं होता ', यह कह कर नेताजी समाचार पत्र पढ़ने लगे । फिर भी सेठजी का आग्रह पूर्ववत् जारी रहा । अन्त में कुछ सोच कर नेताजी बोले , ' किसी एक जाति का होऊँ तो बताऊँ । '
सेठजी ने व्यंग्य किया , ' तो फिर क्या आप वर्ण - संकर है ? लगता है आपके पिताजी ने किसी दूसरी जाति की लड़की से विवाह किया था । '
नेताजी के चरित्र पर चोट थी , पर नेताजी ने मार्मिक व्यंग्यशैली में चुटकी लेते हुए कहा , ' सेठजी जाति ही पूछ रहे हो तो सुनिए - प्रातःकाल जब मैं घर , आंगन , शौचालय की सफाई करता हूँ , तो पूरी तरह मेहतर हो जाता हूँ । जब अपने जूते साफ करता हूँ , तब चमार , दाड़ी बनाते समय नाई , कपड़े धोते समय धोबी , पानी भरते समय कहार , हिसाब करते समय बनिया , कॉलेज में पढ़ाते समय ब्रह्मण हो जाता हूँ । अब आप ही बताएँ मेरी जाति ? '
तब तक स्टेशन आ गया । स्वागत में आयी अपार भीड़ ने नेताजी को हार-मालाओं से लाद दिया । सेठ अवाक् ' आचार्य कृपलानी जिन्दाबाद ' के गगनभेदी नारों के बीच कभी अपने को देखता था , कभी नेताजी अर्थात् आचार्य कृपलानी को ।

सोमवार, 19 मार्च 2012

अपने को हिन्दू बताते हुए मुझे गर्व का अनुभव होता है - स्वामी विवेकानन्द

शेर की खाल ओढ़कर गधा कभी शेर नहीं बन सकता । अनुकरण करना , हीन और डरपोक की तरह अनुसरण करना , कभी उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता । वह तो मनुष्य के अधःपतन का लक्षण है । जब मनुष्य अपने - आप पर घृणा करने लग जाता है , तब समझना चाहिए कि उस पर अंतिम चोट बैठ चुकी है । जब वह अपने पूर्वजों को मानने में लज्जित होता है , तो समझ लो उसका विनाश निकट है । यद्यपि मैं हिन्दू जाति में एक नगण्य व्यक्ति हूँ तथापि अपनी जाति और अपने पूर्वजों के गौरव से मैं अपना गौरव मानता हूँ ।
अपने को हिन्दू बताते हुए , हिन्दू कहकर अपना परिचय देते हुए मुझे एक प्रकार का गर्व - सा अनुभव होता है । ... अतएव भाइयों , आत्मविश्वासी बनो । पूर्वजों के नाम से अपने को लज्जित नहीं , गौरवान्वित समझों । याद रहे , किसी का अनुकरण कदापि न करो ।
- स्वामी विवेकानन्द

रविवार, 18 मार्च 2012

राष्ट्रधर्म - आचार्य चाणक्य

सम्राट चंद्रगुप्त अपने मंत्रियों के साथ एक विशेष मंत्रणा में व्यस्त थे कि प्रहरी ने सूचित किया कि आचार्य चाणक्य राजभवन में पधार रहे हैं । सम्राट चकित रह गए । इस असमय में गुरू का आगमन ! वह घबरा भी गए । अभी वह कुछ सोचते ही कि लंबे - लंबे डग भरते चाणक्य ने सभा में प्रवेश किया ।
सम्राट चंद्रगुप्त सहित सभी सभासद सम्मान में उठ गए । सम्राट ने गुरूदेव को सिंहासन पर आसीन होने को कहा । आचार्य चाणक्य बोले - " भावुक न बनो सम्राट , अभी तुम्हारे समक्ष तुम्हारा गुरू नहीं , तुम्हारे राज्य का एक याचक खड़ा है , मुझे कुछ याचना करनी है । " चंद्रगुप्त की आँखें डबडबा आईं । बोले - " आप आज्ञा दें , समस्त राजपाट आपके चरणों में डाल दूं । " चाणक्य ने कहा - " मैंने आपसे कहा भावना में न बहें , मेरी याचना सुनें । " गुरूदेव की मुखमुद्रा देख सम्राट चंद्रगुप्त गंभीर हो गए । बोले - " आज्ञा दें । " चाणक्य ने कहा - " आज्ञा नहीं , याचना है कि मैं किसी निकटस्थ सघन वन में साधना करना चाहता हूं । दो माह के लिए राजकार्य से मुक्त कर दें और यह स्मरण रहे वन में अनावश्यक मुझसे कोई मिलने न आए । आप भी नहीं । मेरा उचित प्रबंध करा दें । "
चंद्रगुप्त ने कहा - " सब कुछ स्वीकार है । " दूसरे दिन प्रबंध कर दिया गया । चाणक्य वन चले गए । अभी उन्हें वन गए एक सप्ताह भी न बीता था कि यूनान से सेल्युकस ( सिकन्दर का सेनापति ) अपने जामाता चंद्रगुप्त से मिलने भारत पधारे । उनकी पुत्री का हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त से हुआ था । दो - चार दिन के बाद उन्होंने चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी । सेल्युकस ने कहा - " सम्राट , आप वन में अपने गुप्तचर भेज दें । उन्हें मेरे बारे में कहें । वह मेरा बड़ा आदर करते है । वह कभी इन्कार नहीं करेंगे । "
अपने श्वसुर की बात मान चंद्रगुप्त ने ऐसा ही किया । गुप्तचर भेज दिए गए । चाणक्य ने उत्तर दिया - " ससम्मान सेल्युकस वन लाए जाएं , मुझे उनसे मिल कर प्रसन्नता होगी । " सेना के संरक्षण में सेल्युकस वन पहुंचे । औपचारिक अभिवादन के बाद चाणक्य ने पूछा - " मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ । " इस पर सेल्युकस ने कहा - " भला आपके रहते मुझे कष्ट होगा ? आपने मेरा बहुत ख्याल रखा । "
न जाने इस उत्तर का चाणक्य पर क्या प्रभाव पड़ा कि वह बोल उठे - " हां , सचमुच आपका मैंने बहुत ख्याल रखा । " इतना कहने के बाद चाणक्य ने सेल्युकस के भारत की भूमि पर कदम रखने के बाद से वन आने तक की सारी घटनाएं सुना दीं ।
उसे इतना तक बताया कि सेल्युकस ने सम्राट से क्या बात की , एकांत में अपनी पुत्री से क्या बातें हुईं । मार्ग में किस सैनिक से क्या पूछा । सेल्युकस व्यथित हो गए । बोले - " इतना अविश्वास ? मेरी गुप्तचरी की गई । मेरा इतना अपमान । "
चाणक्य ने कहा - " न तो अपमान , न अविश्वास और न ही गुप्तचरी । अपमान की तो बात मैं सोच भी नहीं सकता । सम्राट भी इन दो महीनों में शायद न मिल पाते । आप हमारे अतिथि हैं । रह गई बात सूचनाओं की तो वह मेरा " राष्ट्रधर्म " है । आप कुछ भी हों , पर विदेशी हैं । अपनी मातृभूमि से आपकी जितनी प्रतिबद्धता है , वह इस राष्ट्र से नहीं हो सकती । यह स्वाभाविक भी है । मैं तो सम्राज्ञी की भी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखता हूं । मेरे इस ' धर्म ' को अन्यथा न लें । मेरी भावना समझें । "
सेल्युकस हैरान हो गया । वह चाणक्य के पैरों में गिर पड़ा । उसने कहा - " जिस राष्ट्र में आप जैसे राष्ट्रभक्त हों , उस देश की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता । " सेल्युकस वापस लौट गया ।
मित्रों आज भारत में फिर से एक विदेशी बहु का अप्रत्यक्ष राज चल रहा है , तो क्या हम भारतीय राष्ट्रधर्म का पालन कर रहे है ???
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

गुरुवार, 15 मार्च 2012

भारत के लिए खतरनाक है आतंकवादियों के प्रति छद्म सैक्युलरवादी शक्तियां का समर्थन !!!

अभी अधिक समय नहीं हुआ जब पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत के चक कस्बे में हिन्दू चिकित्सक डॉ. अजीत और उनके दो परिजनों नरेश व अशोक कुमार की हत्या कर दी गई। हमले में एक अन्य चिकित्सक डॉ. सत्यपाल गंभीर रूप से घायल हुए है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव में प्रशासन ने दोषियों के खिलाप जो भी कार्रवाही की, उसका पाकिस्तान की जनता ने हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों द्वारा भारी विरोध किया। असुरक्षा के वातावरण में कुछ अल्पसंख्यक हिन्दू पर्यटक वीजा पर पाकिस्तान से भागकर भारत में आ गये। भारत में फिलस्तीनी नागरिकों के अधिकारों और कश्मीर के अलगाववादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतर आने वाले मानवाधिकारी और छद्म सैक्युलर बुद्धिजीवी पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर खामोश क्यों हैं?
कश्मीर समस्या पर विचार करते हुए सैक्युलर बुद्धिजीवी चाहते है कि घाटी की चर्चा हो, किन्तु कश्मीर के मूल निवासियों के बलात् निर्वासन पर चिन्ता व्यक्त न की जाए। वे अलगाववादी आतंकी नेताओं को ही स्थानीय आबादी का प्रतिनिधि मानते हैं। क्या मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षता के समस्त लाभ घाटी के पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों के लिए ही निश्चित होने चाहिए? अमेरिका में सत्तारूढ़ डैमोक्रेटिक पार्टी के सांसद फ्रैंक पॉलोन ने अमेरिकी संसद में प्रस्ताव पेश कर कहा है कि कश्मीर के मूल निवासी और अपनी धरोहर व संस्कृति को हजारों सालों से सहेजे रखने वाले कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का वर्ष 1989 से ही हनन हो रहा है।1989 में घाटी में करीब 4 लाख कश्मीरी पंडित थे, इस्लामी जेहादियों के उत्पीड़न के कारण घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ और अब वहां केवल 4000 कश्मीरी पंडित ही शेष रह गए है। क्या ऐसा उदाहरण संसार के किसी दूसरे देश में मिल सकता है, जहां अपने ही देश के एक भाग में वहां के बहुसंख्यक 2 दशक से भी कम समय में नगण्य हो गए हों?
महाश्वेता देवी और अरूंधती रॉय दोनों की एक सैक्युलर साहित्यकार के रूप में विशेष प्रतिष्ठा है किन्तु जब भी किसी सामाजिक विषय पर उनकी जबान चलती है तो इसका खुलासा होते देर नहीं लगती कि दोनों न केवल मूल वास्तविक समस्या से अनभिज्ञ है बल्कि उनकी सोच किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। नक्सली आतंकवाद आज भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है जिसे प्रारम्भिक टाल-मटोल के बाद अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया है, किन्तु देश में मानवाधिकारियों-सैक्युलर बुद्धिजीवियों के नाम पर एक सशक्त समूह भी विद्यमान है जो हिंसा पर विश्वास करने वाले नक्सलियों को 'जन नायक' बताता है।
गुजरात दंगों के दौरान अरूंधति रॉय की कलम खूब चली किन्तु उनके दुश्प्रचार की कलाई पीड़ित परिवार के एक व्यक्ति ने ही खोल दी। सांसद एहसान जाफरी के घर हुए हमलों का उल्लेख उन्होंने इस तरह किया था मानो वह घटनास्थल पर प्रत्यक्षदर्शी रही हो। जाफरी की बेटी के साथ बलात्कार और दंगाइयों द्वारा तलवार से उसका पेट चीर डालने के उनके क्षूठ ने समाज के एक वर्ग को कितना उद्वेलित किया होगा, सहज सोचा जा सकता है। बाद में पता चला की जाफरी की बेटी तो अमेरिका में सुरक्षित है और इसका खुलासा स्वयं जाफरी के बेटे ने किया था। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तब उन्होंने हिन्दू समाज की छवि कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नक्सलियों द्वारा हथियार उठाए जाने को भी वे अपवादों की आड़ में न्यायोचित ठहराती है।" यदि मैं एक विस्थापित पुरूष होती जिसकी पत्नी बलात्कार का शिकार हो चुकी है तथा उसकी जमीन छी ली गई है और अब जिसे पुलिस बल का सामना करना पड़ रहा है तो मेरे द्वारा हथियार उठाया जाना न्यायोचित होगा।"
नक्सली कहां के विस्थापित है? यदि नक्सली विकास और अवसरों से वंचित होकर हताश हुए आदिवासियों का समूह मात्र है तो सरकार द्वारा किये जा रहे विकास कार्यो का विरोध क्यों ? छिटपुट कुटीर उद्योग और कारखाने लगाकर स्थानीय आदिवासियों को रोजगार देने वाले कारोबारियों से जबरन वसुली कर उन्हें पलायन के लिए मजबूर क्यों किया जाता है।
अमेरिका ने 9/11 के आतंकी हमले के बाद एक ओर जहां इस तरह के हमलों की पुनरावृत्ति नहीं होने दी, वही इस अमानवीय कार्य के जिम्मेदार आतंकियों को उनके अंजाम तक भी पहुंचाया। दूसरी ओर भारत संसद और मुम्बई पर हुए हमले के असली गुनाहगारों को पकड़ पाने में नाकाम रहा है और जिन लोगों को गिरफ्तार किया भी गया है, उनमें से एक अफजल गुरू सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद सरकारी मेहमाननवाजी का आनंद ले रहा है तो दूसरे अजमल कसाब को तमाम साक्ष्यों के बावजूद अब तक जिन्दा रखा गया है और उस पर सरकारी सूत्र के अनुसार 35 करोड़ रूपए से ज्यादा धन खर्च हो चुका है। कुछ छद्म सैक्युलर दरिंदे तो अफजल गुरू की फांसी माफ कराने के लिए मुहिम भी चला रहे है उनकी संस्थाओं को संदिग्ध विदेशी स्रोतों से धन और पुरूस्कार मिलते है।
वोट बैंक की राजनीति के कारण कोई भारतीय नेता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को, कोई अफजल गुरू जैसे दुर्दांत आतंकी को तथा कोई आतंकवादी दविंद्र सिंह भुल्लर को राष्ट्रपति की माफी द्वारा फांसी से बचाना चाहता है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में एक तरह से कानून तोड़ने वाले लोगों के मानवाधिकार मामलों की हिमायत करने वाले लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि कोई भी भुखमरी, किसानों की आत्महत्या और आतंकवादी हिंसा में सुरक्षा कर्मियों के मारे जाने की बात क्यों नहीं कर रहा। कई सुरक्षा कर्मियों ने संसद की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिये। क्या किसी ने उनकी भावनाओं के बारे में सोचा। उनके मानवाधिकारों का क्या?
दिल्ली के बाटला हाऊस से लेकर मुम्बई हमले तक ऐसे कई उदाहरण है जो भारत के उन बुद्धिजीवियों के चेहरे को बेनकाब करते है जो सैक्युलरवाद के नाम पर आतंकवादियों का समर्थन कर राष्ट्रद्रौह करते है।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

धर्म आधारित आरक्षण भारत के लिए विष का प्याला

भारत में सत्ता हस्तांतरण के पश्चात आरक्षण उन वर्गो को दिया गया था जो बेहद दबे और कमजोर जाति से संबंध रखते थे तथा आरक्षण के बिना उनका आगे बढ़ना असम्भव था । ग्रामीण और उपनगरीय क्षेत्रों में तो उनकी परछाई तक प्रदूषित मानी जाती थी । मूल रूप से इसे अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए 10 वर्षो के लिए रखा गया था । मगर यह आरक्षण न केवल 64 वर्षो से चला आ रहा है , बल्कि विभिन्न समुदायों में विद्वेष पैदा करने के लिए फैलता भी जा रहा है । इसमें उन समुदायों की आवश्यकता से अधिक वोट बैंक की राजनीति का हाथ है ।
अब ये आरक्षण विकराल रूप लेने लगा है । हिन्दू समाज की गुर्जर , कुम्हार आदि जातियों के साथ - साथ मुस्लिम व ईसाई समाज भी धार्मिक आधार पर आरक्षण मांगने लगे है । आखिर आरक्षण कब समाप्त होगा ? क्या यह देश को अखंड व सुरक्षित रहने देगा ? देश के अन्य वर्ग , जाति और समुदाय कब तक चुप रहेंगे ? एक दिन वह भी आरक्षण की मांग करेंगे । सामान्य कहे जाने वाली जातियां भी आरक्षण की मांग करेंगी । क्योंकि उनके लिए तो कुछ भी नहीं बचता , क्योंकि आरक्षित वर्ग आरक्षण के कारण तो अपना अधिकार लेता ही है । सामान्य वर्ग के हिस्से में भी भागीदार हो जाता है , ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या सामान्य वर्ग में गरीब व बेसहारा नहीं है ? या तो सरकार हर जाति और समुदाय के गरीब परिवार के युवाओं को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दें या फिर आरक्षण को समाप्त कर दें । वरना आरक्षण पाओ और आबादी बढ़ाओं ही चलता रहेंगा । देश की चिन्ता कोई नहीं करेगा ।
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में डॉ. भीमराव अम्बेदकर ने कहा था कि जातियां राष्ट्रविरोधी है । पहला , इसलिए कि ये सामाजिक जीवन में अलगाव लाती है । ये राष्ट्रविरोधी है क्योंकि ये समुदायों में ईष्या तथा घृणा पैदा करती है । यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र बनाना चाहते है तो हमें इन सभी कठिनाईयों से पार पाना होगा । भाईचारा होगा तो ही राष्ट्र बनेगा ।
पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर का कहना है कि जाति के आधार पर आरक्षण तथा अन्य उपाय समाज तथा राष्ट्रहित में नहीं है । उन्होंने कहा कि यह अत्यन्त गरीब तथा सभी समुदायों के जरूरतमंद लोगों को मिलना चाहिए ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समान अवसर देने का वचन देता है तो अनुच्छेद 15 ( 1 ) के द्वारा यह विश्वास दिलाया गया है कि जाति , धर्म , संस्कृति या लिंग के आधार पर राज्य किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा । मुसलमान व ईसाई आदि अल्पसंख्यकों को भी बहुसंख्यकों के बराबर स्वतंत्रता व रोजगार का अधिकार प्राप्त है । भारत का संविधान स्पष्ट शब्दों में धर्म आधारित आरक्षण की मनाही करता है । तो भी सन 2004 में आंध्र प्रदेश की तत्कालीन राजशेखर रेड्डी की सरकार ने संविधान की मूल भावना के विरूद्ध अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण हेतु धर्म के आधार पर विभाजित भारत के इतिहास में धर्म के आधार पर आरक्षण का एक नया पन्ना जोड़ा । जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ गौर कर रही है । अल्पसंख्यक वोटों के भूखे अन्य राजनीतिक दल भी इसका अनुकरण करने के लिए लालायित है ।
मुस्लिमों के लिए आरक्षण वस्तुतः उस मर्ज का इलाज ही नहीं है , जिससे मुस्लिम समुदाय ग्रस्त है । विडंबना यह है कि सेक्युलर दल अवसरवादी राजनीति के कारण उस मानसिकता को स्वीकारना नहीं चाहते । बुर्का प्रथा , बहुविवाह , मदरसा शिक्षा , जनसंख्या अनियंत्रण जैसी समस्याओं को दूर किए बगैर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की कवायद एक छलावा मात्र है । इस प्रतियोगी युग में भी अधिकांश मुस्लिम नेताओं द्वारा मदरसों की अरबी - फारसी शिक्षा को ही यथेष्ट माना जाना तथा अपने समुदाय के लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित न करना क्या दर्शाता है । वे अपनी बढ़ी आबादी के बल पर राजनीतिक दलों के साथ ब्लैकमेलिंग की स्थिति में है ।
हिन्दू और मुसलमानों की साक्षरता दर के साथ जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना करें तो मुस्लिमों के पिछड़ेपन का भेद खुल जाता है । केरल की औसत साक्षरता दर 90.9 प्रतिशत है । मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है , जबकि हिन्दुओं में यह दर 20 प्रतिशत है । महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर हिन्दुओं की तुलना में 52 प्रतिशत अधिक है । छत्तीसगढ़ में साक्षरता 82.5 प्रतिशत तो जनसंख्या दर हिन्दुओं की तुलना में 37 प्रतिशत अधिक है । संसाधन सीमित हो और उपभोक्ता असीमित तो कैसी स्थिति होगी ?
अल्पसंख्यक बोट बटोरने के लिए आरक्षण को एक हथियार के रूप में प्रयुक्त कर रही राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को खुले मस्तिष्क से धर्म आधारित आरक्षण के दीर्घकालिक परिणामों पर सोचना चाहिए । धर्म के आधार पर आरक्षण कालांतरण में राज्य व केन्द्र स्तर पर अलग - अलग क्षेत्रों की मांग का भी मार्ग प्रशस्त कर सकता है । जो भारत के लिए विष का प्याला सिद्ध होगा । जाति और धर्म आधारित आरक्षण समाज में मतभेद बढ़ाता है और राष्ट्रीय एकता को खंडित करने का काम करता है ।
दूसरी ओर आर्थिक आधार पर आधारित आरक्षण कोई फूट नहीं डालता और विभिन्न समुदायों में कोई वैमनस्य नहीं बढ़ाता । अभी भी आरक्षण का आधार आर्थिक करने का एक अवसर है , इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाई जा सकती है । यदि धर्म आधारित आरक्षण दिया गया तो इसके परिणाम राष्ट्रीय एकता के लिए विष के समान घातक सिद्ध होगे ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत'

बुधवार, 14 मार्च 2012

मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ?

एक बार भ्रमण करते धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द अलवर राज्य में गये । सम्पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ महाराजा ने स्वामी जी का भव्य स्वागत किया । महाराजा युवक थे एवं पश्चिमी विचारों से कुछ - कुछ प्रभावित भी थे । मूर्ति पूजा में उनकी आस्था नहीं थी । स्वामी जी से वार्तालाप करते समय , उन्होंने व्यंग्य पूर्ण भाषा में पूछा कि मन्दिरों में मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ?
स्वामी विवेकानन्द ने महाराजा को बताया कि मूर्ति रूप में ईश्वर की पूजा करना भी उसकी प्राप्ति का एक मार्ग है और इससे कोई हानि भी नहीं है । परन्तु महाराजा इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए । अपने तर्क की पुष्टि के लिए स्वामी जी ने वहा उपस्थित मंत्री से कहा कि वह दीवार में लटका महाराजा का एक चित्र लाएं । मंत्री ने महाराजा का चित्र लाकर स्वामी जी को सौंप दिया । स्वामी जी ने तब मंत्री से कहा कि वह महाराजा के चित्र पर थूके । इस सुझाव मात्र पर ही मंत्री का सिर चकराने लगा । उसने स्वामी जी से कहा कि यह काम करना मेरे लिए असम्भव है ।
तब स्वामी विवेकानन्द महाराज की ओर मुड़े और उन्हें निर्दिष्ट करते हुए कहा कि जिस प्रकार मंत्री ने महाराजा के केवल एक चित्र पर थूकना अस्वीकार कर दिया जबकि वह एक निर्जीव कागज है , केवल महाराजा का एक प्रतीक मात्र है । ठीक इसी प्रकार मूर्ति पूजा भी एक ऐसा प्रतिकात्मक कार्य मात्र है , जो अंत में सामान्य लोगों को ईश्वर में ध्यान केन्द्रित करने एवं उच्च आध्यात्मिक स्तरों तक पहुंचाने में सहायता करता है ।
संस्कृत भाषा में प्रतिक का अर्थ है ' ओर आना ' या ' समीप पहुँना ' । विश्व के सभी धर्मो में उपासना की कई पद्धतियां प्रचलित है । कुछ लोग अपने धर्म गुरूओं की पूजा करते है , तो कुछ लोग आकृति विशेष या प्रकृति की पूजा करते है और कुछ ऐसे भी लोग है जो मनुष्य से उच्चतर प्राणियों देवदूत , देवता , अवतार इत्यादि की पूजा करते है । इन भिन्न - भिन्न पद्धतियों में से भक्तियोग किसी का तिरस्कार नहीं करता । वह इन सब को एक प्रतीक नाम के अन्तर्गत कर प्रतिक पूजा या मूर्ति पूजा कहकर मानता है । ये सब ईश्वर की उपासना नहीं कर रहे है पर प्रतिक की उपासना करते है , जो ईश्वर के समीप है । पर ये प्रतिक पूजा हमें मुक्ति और स्वातंत्र्य के पद पर नहीं पहुँचा सकती । यह तो उन विशेष चीजों को ही दे सकती है जिनके लिए हम उनकी पूजा करते है । किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है जो परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने , उसके कुछ समीप जाने के समान है । यदि कोई मनुष्य अरूंधती तारे को देखना चाहता है , तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है , तब उसको उसके बाद उससे छोटा एक दूसरा तारा दिखाते है । ऐसा करते - करते क्रमशः उसको अरूंधती तक ले जाते है । इसी प्रकार ये भिन्न - भिन्न प्रतिक और प्रतिमाऐं उसे ईश्वर तक पहुंचा देती है ।
दो प्रकार के मनुष्य को किसी प्रतिक या मूर्ति की आवश्यकता नहीं होती - एक तो मानव रूपधारी पशु , जो कभी धर्म का विचार नहीं करता और दूसरा पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति जो इन सब सीढ़ियों को पार कर गया होता है । इन दोनों छोरों के बीच में सबको किसी न किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है । मैं तो कहता हूं कि चित्र की नहीं चरित्र की उपासना करो , व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की पूजा करो । भगवान श्रीराम एक नाम नहीं बल्कि श्रीराम का अर्थ त्याग , आदर्श , करूणा , दया , समता , स्वाभिमान , शौर्य , स्वधर्म के प्रति अपने आप को समर्पिक करना है । भगवान श्रीराम प्रत्येक मनुष्य के लिए आदर्श है । भगवान श्रीकृष्ण , भगवान महावीर , भगवान बुद्ध को किसी भी धर्म या जाति विशेष की परीधि में नहीं रखा जा सकता है । ये तीनों अहिंसा , करूणा , तप व त्याग के प्रतिक है । इसलिए चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करने की आवश्यकता है ।
अमेरिकी लेखक डेल कार्नेगी लिखते है - जब कभी मैं मानसिक चिंताओं से परेशान होता हूं , मैं अब्राह्म लिंकन के शान्त चित्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करता हूं । इससे मन में शान्तभाव , साहस और नई प्रेरणा आती है । मैं तरोताजा होकर फिर काम में जुट जाता हूं । घर में रखी प्रत्येक मूर्ति या चित्र से एक वातावरण का निर्माण होता है । मनुष्य अपनी आंखों से दिन - प्रतिदिन इन चित्रों या मूर्तियों को देखता है , बार - बार दृष्टि पड़ने से इनका सूक्ष्म प्रभाव सीधे मन पर पड़ता है । इन चित्रों में चित्रित भावनाओं , स्थितियों , मुद्राओं के अनुसार हमारे मन में शुभ - अशुभ विचार , भावनाएं उत्पन्न होती है , वैसी ही मन स्थितियां बनती है । हमारे देवी , देवताओं , वेद , उपनिषद् , रामायण , महाभारत के इतिहास से सम्बन्धित मूर्तियों की प्रत्येक आकृति में , हाव - भाव , मुख - मुद्राओं में , दिव्य संदेश भरे हुए है । उन संदेशों को याद करके , जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अग्निना अग्निः समिध्यते ।
अग्नि से अग्नि , बड़ी से छोटी आत्मा प्रदीप्त होती है । महान विभूतियों , देवी - देवताओं की मूर्तियों से दीप्तिमान शान्तिदायक प्रेरक वातावरण में रहकर अपनी आत्मा को आलोकित करें ।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत

अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर "अरब" हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें विष्णु को हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था, इसी कारण देवों, दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध 'देवासुर संग्राम' हुए। देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था कि शुक्र उनके (देवों के) पक्षधर बन जायें, किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू बने रहे। यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना, तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गये और वहाँ 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" में लिखा है कि 'शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब'। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे 'काबा' कहते है, वह वस्तुतः 'काव्य शुक्र' (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके आराध्य भगवान शिव का ही मन्दिर है। कालांतर में 'काव्य' नाम विकृत होकर 'काबा' प्रचलित हुआ। अरबी भाषा में 'शुक्र' का अर्थ 'बड़ा' अर्थात 'जुम्मा' इसी कारण किया गया और इसी से 'जुम्मा' (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते है।
"बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योऽसुराणाम्"-जैमिनिय ब्रा.(01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ 'सेअरूल-ओकुल' के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
"अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।"
अर्थात-(1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात 'ज्ञान का पिता' कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल 'अज्ञान का पिता' कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। 'Holul' के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात 'संगे अस्वद' को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ' सेअरूल-ओकुल' के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । 'उमर-बिन-ए-हश्शाम' की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है -
" कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् - (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

मंगलवार, 13 मार्च 2012

भारत के लिए आदर्श शिक्षा व्यवस्था - स्वामी विवेकानन्द

शिक्षा से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है । जब से शिक्षा , सभ्यता आदि उच्च वर्ण वालों से धीरे - धीरे जन - साधारण में फैलने लगी , उसी दिन से पश्चिमी देशों की वर्तमान सभ्यता और भारत , मिश्र , रोम आदि की प्राचीन सभ्यता के बीच अन्तर बढ़ने लगा । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिस जाति की जनता में विद्या - बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है , वह जाति उतनी ही उन्नत है । भारतवर्ष के सत्यनाश का मूल कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या - बुद्धि राजशासन और दम्भ के बल से केवल मुट्ठीभर लोगों के अधिकार में रखी गई है । यदि हमें फिर से उन्नति करनी है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा , अर्थात जनता में विद्या का प्रचार करना होगा ।
आधी सदी से समाज - सुधार की धूम मची हुई है । मैंने दस वर्ष तक भारत के अनेकानेक स्थानों में घूमकर देखा कि देश में समाज - सुधारक समितियों की बाढ़ - सी आई है । परन्तु जिनका रूधिर शोषण करके हमारे ' भद्र लोगों ' ने यह पदक प्राप्त किया है और कर रहे है , उन बेचारों के लिए एक भी सभा नजर न आई ! मुसलमान लोग कितने सिपाही लाए थे ? यहां अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छह सिक्कों के लिये अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने वाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहां मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षो के मुसलमानी शासनकाल में छह करोड़ मुसलमान , और सौ वर्ष के ईसाई - राज्य में बीस लाख ईसाई कैसे बने ? मौलिकता ने देश को क्यों बिल्कुल त्याग दिया है ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोपवालों के साथ बराबरी करने में असर्मथ होकर दिनों दिन दुर्दशा को प्राप्त हो रहे है ? पुन किस बल से जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों के दृढ़ प्रतिष्ठित आसन को हिला दिया ?
केवल शिक्षा ! शिक्षा ! शिक्षा ! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमते हुए वहां के गरीबों तक के लिये अमन - चैन और शिक्षा की सुविधाओं को देखकर अपने यहां के गरीबों की बात याद आती थी और मैं आंसू बहाता था । यह अन्तर क्यों हुआ ? उत्तर मिला - शिक्षा ! शिक्षा से आत्म - विश्वास आता है और आत्मविश्वास से अन्तर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है ।
इसके लिये विद्या भी सिखानी पड़ेगी । ऐसा कहना तो बड़ा सरल है , पर वह काम में किस तरह लाया जाए ? हमारे देश में हजारों नि:स्वार्थ , दयालु और त्यागी पुरूष हैं । जिस प्रकार वे बिना कोई पारिश्रमिक लिये घूम - घूमकर धर्मशिक्षा दे रहे हैं , उसी प्रकार उनमें से कम से कम आधे लोग उस विद्या के शिक्षक बनाए जा सकते हैं , जिसकी हमें आज सबसे अधिक आवश्यकता है । इस कार्य के लिये पहले प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में एक - एक केन्द्र होना चाहिये , जहां से धीरे - धीरे भारत के सब स्थानों में फैलना होगा ।
धीरे - धीरे उन मुख्य केन्द्रों में खेती , व्यापार आदि भी सिखाए जाएंगे और उद्योग शालाएं भी खोली जायेगी , जिससे इस देश में शिल्प आदि की उन्नति हो । उन उद्योग शालाओं का माल यूरोप और अमेरिका में बेचने के लिये उन देशों में अभी जैसी समितियां हैं , वैसी और भी स्थापित की जाएंगी । जिस प्रकार पुरूषों के लिये प्रबंध हो रहे हैं , ठीक उसी प्रकार स्त्रियों के लिये भी होना चाहिये , उनके लिये भी केन्द्र खोलने चाहिये । मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास है कि जिस सांप ने काटा है , वही अपना विष उठाएगा , इन सब कामों के लिये जिस धन का प्रयोजन हो , वह पश्चिमी देशों से आएगा । इसलिये हमारे धर्म का यूरोप और अमेरिका में प्रचार होना चाहिये । आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि धर्मो की भित्ति बिल्कुल चूर - चूर कर दी है । इसके सिवाय , विलासिता ने तो धर्मवृत्ति का प्रायः नाश कर डाला है । यूरोप और अमरिका आशा - भरी दृष्टि से भारत की और ताक रहे हैं । परोपकार का यही ठीक समय है , शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही उत्तम समय है ।
मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं यदि भारतीय नारियां देशी पोशाक पहने भारत के ऋषियों के मुंह से निकले हुए धर्म का प्रचार करें तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी जो सारी पश्चिमी भूमि को डुबा देगी । क्या मैत्रेयी , खना , लीलावती , सावित्री और उभयभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह साहस नहीं होगा ? विस्तार ही जीवन का चिह्न है , और हमें सारी दुनियां में अपने आध्यात्मिक आदर्शो का प्रचार करना होगा । " उतिष्ठित , जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत् " - उठो , जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत ।