मंगलवार, 22 मार्च 2011

इरविन - गांधी समझौता और भगतसिँह की फाँसी

मार्च 1931 मेँ गांधीजी ने ब्रिटिस सरकार के प्रतिनिधि लार्ड एडवर्ड इरविन के साथ समझौता किया । इस समझौते के अन्तर्गत ब्रिटिस सरकार द्वारा कांग्रेसी आन्दोलन के सभी बंदी छोड दिये गये , परन्तु क्रान्तिकारी आन्दोलन गदर पार्टी के बंदी , लोदियोँ मार्शल ला के बंदी , अकाली बंदी , देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केश आदि के बंदियोँ को छोडने से इन्कार कर दिया । गांधीजी ने भी इस समझौते के अनुपालन मेँ अपना आन्दोलन वापस ले लिया और अन्य आन्दोलन कर्ता क्रान्तिकारियोँ से भी अपना आन्दोलन वापस लेने की अपील की । गांधीजी की अपील के प्रत्युत्तर मेँ लाहौर षडयन्त्र केस के क्रान्तिकारी सुखदेव ने गांधीजी के नाम खुला पत्र लिखकर गांधीजी पर क्रान्तिकारियोँ को कुचलने के लिए ब्रिटिस सरकार का साथ देने का आरोप लगाया था और पत्र मेँ दो विचार धाराओँ के बीच मतभेदोँ पर प्रकाश डाला था । उन्होँने इस समझोते पर सवाल खडे किये थे तथा गांधीजी से अपनी शंका का समाधान करने का आग्रह किया था । लेकिन गांधीजी ने सुखदेव के पत्र का कोई उत्तर नहीँ दिया था । सुखदेव के पत्र का संक्षिप्त सार यह हैँ -
अत्यन्त सम्मानीय महात्मा जी आपने क्रान्तिकारियोँ से अपना आन्दोलन रोक देने की अपील निकाली हैँ । कांग्रेस लाहौर के प्रस्तावानुसार स्वतन्त्रता का युद्ध तब तक जारी रखने के लिए बाध्य हैँ जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये । बीच की संधिया और समझौते विराम मात्र हैँ । यद्यपि लाहौर के पूर्ण स्वतन्त्रता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन स्थगित पर दिया हैँ , जिसके फलस्वरूप आपके आन्दोलन के बन्दी छुट गए हैँ । परन्तु क्रान्तिकारी बंदियोँ के बारे मेँ आप क्या कहते हो । सन 1915 के गदर पार्टी वाले राजबंदी अब भी जेलोँ मेँ सड रहे हैँ , यद्यपि उनकी सजाऐ पूरी हो चुकी हैँ । लोदियोँ मार्शल ला के बंदी जीवित ही कब्रो मेँ गडे हुए है , इसी प्रकार दर्जनोँ बब्बर अकाली कैदी जेल मेँ यातना पा रहे है । देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केस , दिल्ली , चटगॉव , बम्बई , कलकत्ता आदि स्थानोँ मेँ चल रहे क्रान्तिकारी फरार , जिनमेँ बहुत सी तो स्त्रियाँ है । आधा दर्जन से अधिक कैदी तो अपनी फाँसियोँ की बाट जोह रहे हैँ । इस विषय मेँ आप क्या कहते हैँ । लाहौर षडयन्त्र के हम तीन राजबंदी जिन्हेँ फाँसी का हुक्म हुआ है और जिन्होँने संयोगवश बहुत बडी ख्याति प्राप्त कर ली है , क्रान्तिकारी दल के सब कुछ नहीँ हैँ । देश के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीँ हैँ । वास्तव मेँ इनकी सजाओँ के बदलने से देश का उतना कल्याण न होगा जितना की इन्हेँ फाँसी पर चढा देने से होगा ।
परन्तु इन सब बातोँ के होते हुए भी आप इनसे अपना आन्दोलन खीँच लेने की सार्वजनिक अपील कर रहे है । अपना आन्दोलन क्योँ रोक ले , इसका कोई निश्चित कारण नहीँ बतलाया । ऐसी स्थिति मेँ आपकी इन अपीलोँ के निकालने का मतलब तो यहीँ हैँ कि आप क्रान्तिकारियोँ के आन्दोलन को कुचलने मेँ नौकरशाही का साथ दे रहेँ होँ । इन अपीलोँ द्वारा स्वयं क्रान्तिकारी दल मेँ विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे होँ । गवर्नमेँट क्रान्तिकारियोँ के प्रति पैदा हो गयी सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी तरह से उन्हेँ कुचल डालना चाहती है । अकेले मेँ वे सहज ही कुचले जा सकते है , ऐसी हालत मेँ किसी प्रकार की भावुक अपील निकाल कर उनमेँ विश्वासघात और फूट पैदा करना बहुत ही अनुचित और क्रान्ति विरोधी कार्य होगा । इसके द्वारा गवर्नर को , उन्हेँ कुचल डालने मेँ प्रत्यक्ष सहायता मिलती हैँ । इसलिए आपसे हमारी प्रार्थना है कि या तो आप क्रान्तिकारी नेताओँ से जो कि जेलोँ मेँ हैँ , इस विषय पर सम्पूर्ण बातचीत कर निर्णय लीजिये या फिर अपनी अपील बन्द कर दीजिये । कृपा करके उपरोक्त दो मार्गो मेँ से किसी एक का अनुसरण कीजिये । अगर आप उनकी सहायता नहीँ कर सकते तो कृपा करके उन पर रहम कीजिये और उन्हेँ अकेला छोड दीजिये । वे अपनी रक्षा आप कर लेगे ।
आशा है आप अपरोक्त प्रार्थना पर कृपया विचार करेँगे और अपनी राय सर्व साधारण के सामने प्रकट कर देगे ।
आपका
अनेकोँ मेँ से एक
भगतसिँह व उनके साथियोँ को मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश आक्रोषित था व गांधीजी की ओर इस आशा से देख रहा था कि वह अनशन कर इन देशभक्तोँ को मृत्यु से बचाएगे । राष्ट्रवादियोँ ने गांधीजी से राजगुरू , सुखदेव और भगतसिँह के पक्ष मेँ हस्तक्षेप कर ब्रिटिस सरकार से उनकी फाँसी माफ कराने की प्रार्थना की । परन्तु जनता की प्रार्थना को गांधीजी ने इस तर्क के साथ ठुकरा दिया कि मैँ हिँसा का पक्ष नहीँ ले सकता । जब प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914 - 1918 ) के दौरान भारतीय सैनिकोँ ने हजारोँ जर्मनोँ को मौत के घाट उतारा तो क्या गांधीजी ने हिँसा का पक्ष नहीँ लाया था ? परन्तु शायद वह हिँसा इसलिए नहीँ थी , क्योँकि वे सैनिक अंग्रेजोँ की सेना मेँ जर्मनोँ को मारने के लिए उन्होँने भर्ती कराये थे । विश्वयुद्ध के दौरान गांधीजी ने वायसराय चेम्स फोर्ड को एक पत्र भी लिखा था । पत्र मेँ उन्होँने लिखा था -
" मैँ इस निर्णायक क्षण पर भारत द्वारा उसके शारीरिक रूप से स्वस्थ पुत्रोँ को अंग्रेजी साम्राज्य पर बलिदान होने के रूप मेँ प्रस्तुत किये जाने के लिए कहूँगा । "
प्रथम विश्वयुद्ध मेँ उन्हेँ ब्रिटिस साम्राज्य के प्रति उनकी सेवाओँ के लिए 'केसर-ए-हिन्द' स्वर्ण पदक से अलंकृत किया गया था ।
अगर गांधीजी हस्तक्षेप करते तो भगतसिँह और उसके साथियोँ को बचाया जा सकता था , क्योँकि ब्रिटिस सरकार ने ऐसे संकेत दिये थे । गांधीजी ने भगतसिँह व उसके साथियोँ की फाँसी माफ कराने के लिए लार्ड इरविन से वार्ता तो की लेकिन कोई दृढ इच्छा शक्ति प्रकट न की जिसके कारण राजगुरू , सुखदेव व भगतसिँह को नियम भंग कर 24 मार्च 1931 को प्रातःकाल दी जाने वाली फाँसी 23 मार्च को शाम मेँ ही दे दी गई । सारा देश इस अन्याय के विरूद्ध उठ खडा हुआ , लेकिन गांधीजी शांत रहेँ ।
- विश्वजीत सिँह 'अनंत'

8 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ लोग सहमत और कुछ असहमत हो सकते हैं परन्तु मुझे लगता है की गांधी जी केवल अंग्रेजों के हाथ की एक कठपुतली थे जो की भारतीयों के आक्रोश को सही दिशा नहीं लेने देना चाहते थे |
    महात्मा गांधी : अहिंसा का पुजारी या 1919 के हिन्दुओं के नरसंघार का नेतृत्वकर्ता

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  2. अंकित जी , सुशील बाकलीवाल जी और हरीश जी आपने अपने अमूल्य विचार और सुझाव द्वारा मेरा मार्गदर्शन किया जिसके लिए मैँ आपकोँ हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । आशा हैँ कि आप अपना प्रेम और स्नेह हमेशा यू ही बनाये रखेँगे ।

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  3. शहीद भगत सिंह या उनके साथी कभी नहीं चाहते थे कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगड़े और भोलीभाली जनता का खून बहे। यदि वे लोग ऐसा चाहते तो उनका संगठन देश में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने और अपने साथियों को छुड़ाने के लिए खून ख़राबा कर सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा न करनके गाँधी को पत्र लिखा कि अहिंसक मार्ग अपनाकर उन्हें अंग्रेज़ों के चंगुल से बचाया जाए। गाँधी जी की मजबूरी देश को आज़ाद कराना था और उन्होंने ऐसा ही किया। अब आप भी तो शहीद दिवस पर ही भगत सिंह को याद करते हैं। बाकी दिन क्यों याद नहीं आती? अब अगर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के प्रति श्रद्धा हो, देश में अमन चैन रखना हो, अहिंसा को रोकना चाहते हैं तो इन शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करें तथा इनके प्रति सम्मान रखते हुए उनके आदर्शों का अनुसरण करें। वैमनस्य को बढ़ावा न दें।

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  4. विश्वजीत जी मॉडरेशन और वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा दें।

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  5. आदरणीय डॉ. यादव जी आपने बिल्कुल ठीक कहा कि भगतसिंह व उसके साथी धर्मनिरपेक्षता व अहिंसा में विश्वास रखते थे तथा गांधी जी से आशा करते थे कि वे अपने आन्दोँलन द्वारा अखण्ड भारत को आजाद करायें । लेकिन गांधी जी के बारे मेँ एक इतिहासिक तथ्य को हम नकार नहीं सकते कि आधुनिक भारतीय राजनीति मेँ विभाजनकारी साम्प्रदायिक नीतियोँ के जनक गांधी जी ही थे क्योँकि प्रारम्भ मेँ सभी क्रान्तिकारियों का एक ही लक्ष्य था भारत की आजादी । लेकिन गांधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन मेँ सच्चे राष्ट्रभक्त उदार मुसलमानोँ की उपेक्षा करके अरब साम्राज्यवादी जेहादी विचारधारा के कट्टर मुस्लिमोँ का हमेशा अनुचित पक्ष लिया जिसकी प्रतिक्रिया मेँ हिन्दू राष्ट्रवाद का जन्म हुआ और अंतः अखण्ड भारत दो धर्म , दो देश के आधार पर टुकडोँ मेँ बट गया जिसके मूल रूप से जिम्मेदार गांधी जी थे । गांधी जी कहा करते थे कि पाकिस्तान का जन्म मेरी लाश पर होगा , लेकिन गांधी जी ने तुष्टिकरण के बीज बोकर अपनी कथनी के विपरित आचरण कर पाकिस्तान का निर्माण कराया ।
    वास्तव में गांधी जी अपने सामने किसी प्रतिद्वंदी को स्वीकार न कर पाते थे और वह उन्हेँ अपने रास्ते से हटाने का पूरा प्रयास करते थे , वह प्रतिद्वंदी नेताजी सुभाष हो , भगतसिंह हो चाहे वीर सावरकर । गांधी जी का मुख्य दोष यह था कि वह स्वयं को देश से बढकर मानने लगे थे । अपने विचारोँ , मान्यताओँ को दूसरो से बढकर मानना और उन पर उसकी सवौच्चता सिद्ध करना परस्पर वैमन्सव ( नफरत ) और हिंसा को जन्म देता हैँ । यही काम गांधी जी ने किया और देश को विश्व की सबसे बडी त्रासदी भारत विभाजन ( जिसमेँ 25 लाख हिन्दू , सिक्ख और मुसलमानोँ का कत्लेआम हुआ । ) और उसके बाद के दुष्परिणामोँ को भुगतना पड रहा हैँ । यदि भारत गांधीवाद के पाखण्ड मेँ न पडकर नेताजी सुभाष या भगतसिंह की चेतावनी पर ध्यान देता तो आज भारत का विभाजन न होता और यह विश्व की महाशक्ति बन चुका होता ।

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  6. आदरणीय डॉ. यादव जी विश्वस्तर पर इक्किसवीं सदी के सर्वार्धिक प्रभावशाली व्यक्तियोँ मेँ ओसामा बिन लादेन की भी गिनती होती हैँ तो क्या हम लादेन को महानायक कहेँगे ! जब लादेन को महानायक नहीं कहा जा सकता तो भारत की जनता के अन्दर साम्प्रदायिक विद्वेष का उन्माद पैदा करने वाले व्यक्ति को महानायक बनाने का कुचक्र क्यों रचा जा रहा हैं ! अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी भारत यात्रा के दौरान अपने आपको गांधी जी का अनुयायी बताया था तो क्या लोकतंत्र समर्थन की आड लेकर लीबिया पर किया गया हमला ओबामा द्वारा गांधी जी की तथाकथित अहिंसा को श्रद्धांजली हैं । जिस पर लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी कह चुके है कि लीबिया पर जारी बर्बर और अनुचित हमलोँ को रोका जाए । अफ्रीकी यूनियन जो भी फैसला करेगी , वह मुझे मंजूर होगा । लेकिन इसके बाद भी गांधी जी के अनुयायी ओबामा ने लीबिया पर हमला बन्द नहीं किया हैँ और न ही किसी राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय गांधीवादी संगठन द्वारा इस हिंसा का विरोध किया जा रहा हैँ । आखिर गांधीवादियोँ द्वारा यह दौगला व्यवहार किस लिये किया जा रहा हैँ । अब समय आ गया हैं कि हम किसी भी महापुरूष की अच्छाईयोँ को तो ग्रहण करें लेकिन उनकी बुराईयोँ से समाज को बचाने के लिए उनका डटकर मुकाबला करें । हम भी गांधी जी की ग्राम स्वराज की नीतियों का समर्थन करते हैं लेकिन मानव - मानव के बीच भेद - भाव पैदा करने वाली उनकी साम्प्रदायिक नीतियों की कडे शब्दों में निन्दा करते हैं ।

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  7. nice कृपया comments देकर और follow करके सभी का होसला बदाए..

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