मंगलवार, 13 मार्च 2012

भारत के लिए आदर्श शिक्षा व्यवस्था - स्वामी विवेकानन्द

शिक्षा से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है । जब से शिक्षा , सभ्यता आदि उच्च वर्ण वालों से धीरे - धीरे जन - साधारण में फैलने लगी , उसी दिन से पश्चिमी देशों की वर्तमान सभ्यता और भारत , मिश्र , रोम आदि की प्राचीन सभ्यता के बीच अन्तर बढ़ने लगा । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिस जाति की जनता में विद्या - बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है , वह जाति उतनी ही उन्नत है । भारतवर्ष के सत्यनाश का मूल कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या - बुद्धि राजशासन और दम्भ के बल से केवल मुट्ठीभर लोगों के अधिकार में रखी गई है । यदि हमें फिर से उन्नति करनी है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा , अर्थात जनता में विद्या का प्रचार करना होगा ।
आधी सदी से समाज - सुधार की धूम मची हुई है । मैंने दस वर्ष तक भारत के अनेकानेक स्थानों में घूमकर देखा कि देश में समाज - सुधारक समितियों की बाढ़ - सी आई है । परन्तु जिनका रूधिर शोषण करके हमारे ' भद्र लोगों ' ने यह पदक प्राप्त किया है और कर रहे है , उन बेचारों के लिए एक भी सभा नजर न आई ! मुसलमान लोग कितने सिपाही लाए थे ? यहां अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छह सिक्कों के लिये अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने वाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहां मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षो के मुसलमानी शासनकाल में छह करोड़ मुसलमान , और सौ वर्ष के ईसाई - राज्य में बीस लाख ईसाई कैसे बने ? मौलिकता ने देश को क्यों बिल्कुल त्याग दिया है ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोपवालों के साथ बराबरी करने में असर्मथ होकर दिनों दिन दुर्दशा को प्राप्त हो रहे है ? पुन किस बल से जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों के दृढ़ प्रतिष्ठित आसन को हिला दिया ?
केवल शिक्षा ! शिक्षा ! शिक्षा ! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमते हुए वहां के गरीबों तक के लिये अमन - चैन और शिक्षा की सुविधाओं को देखकर अपने यहां के गरीबों की बात याद आती थी और मैं आंसू बहाता था । यह अन्तर क्यों हुआ ? उत्तर मिला - शिक्षा ! शिक्षा से आत्म - विश्वास आता है और आत्मविश्वास से अन्तर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है ।
इसके लिये विद्या भी सिखानी पड़ेगी । ऐसा कहना तो बड़ा सरल है , पर वह काम में किस तरह लाया जाए ? हमारे देश में हजारों नि:स्वार्थ , दयालु और त्यागी पुरूष हैं । जिस प्रकार वे बिना कोई पारिश्रमिक लिये घूम - घूमकर धर्मशिक्षा दे रहे हैं , उसी प्रकार उनमें से कम से कम आधे लोग उस विद्या के शिक्षक बनाए जा सकते हैं , जिसकी हमें आज सबसे अधिक आवश्यकता है । इस कार्य के लिये पहले प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में एक - एक केन्द्र होना चाहिये , जहां से धीरे - धीरे भारत के सब स्थानों में फैलना होगा ।
धीरे - धीरे उन मुख्य केन्द्रों में खेती , व्यापार आदि भी सिखाए जाएंगे और उद्योग शालाएं भी खोली जायेगी , जिससे इस देश में शिल्प आदि की उन्नति हो । उन उद्योग शालाओं का माल यूरोप और अमेरिका में बेचने के लिये उन देशों में अभी जैसी समितियां हैं , वैसी और भी स्थापित की जाएंगी । जिस प्रकार पुरूषों के लिये प्रबंध हो रहे हैं , ठीक उसी प्रकार स्त्रियों के लिये भी होना चाहिये , उनके लिये भी केन्द्र खोलने चाहिये । मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास है कि जिस सांप ने काटा है , वही अपना विष उठाएगा , इन सब कामों के लिये जिस धन का प्रयोजन हो , वह पश्चिमी देशों से आएगा । इसलिये हमारे धर्म का यूरोप और अमेरिका में प्रचार होना चाहिये । आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि धर्मो की भित्ति बिल्कुल चूर - चूर कर दी है । इसके सिवाय , विलासिता ने तो धर्मवृत्ति का प्रायः नाश कर डाला है । यूरोप और अमरिका आशा - भरी दृष्टि से भारत की और ताक रहे हैं । परोपकार का यही ठीक समय है , शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही उत्तम समय है ।
मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं यदि भारतीय नारियां देशी पोशाक पहने भारत के ऋषियों के मुंह से निकले हुए धर्म का प्रचार करें तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी जो सारी पश्चिमी भूमि को डुबा देगी । क्या मैत्रेयी , खना , लीलावती , सावित्री और उभयभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह साहस नहीं होगा ? विस्तार ही जीवन का चिह्न है , और हमें सारी दुनियां में अपने आध्यात्मिक आदर्शो का प्रचार करना होगा । " उतिष्ठित , जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत् " - उठो , जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत ।

1 टिप्पणी:

  1. 1.
    चंदन कुमार मिश्रFeb 20, 2012 12:53 AM

    स्त्री का उपन्यास पढना प्रतिबंधित होना चाहिए इनके अनुसार! ... यह भी इन्हीं की बात है। संदर्भ- रामकृष्ण मिशन से प्रकाशित किताबें। इनकी शिक्षा विषयक बातों को लेकर एक किताब 'शिक्षा' भी छापी है मिशन ने... मौलिकता की बात करने वाले इस व्यक्ति ने जिंदगी के गिने चुने मौकों पर ही यहाँ की भाषा में बात की थी... उदाहरण भी आज तक मुझे एक-दो ही मिले वरना कविता तक अंग्रेजी में लिखते रहे जनाब! अपने देश में भी युवकों से अंग्रेजी बोलते रहे, शिक्षा के माध्यम पर इनकी कोई उल्लेखनीय बात है ही नहीं! ... ... अग्रेजी की भक्ति में डूबे से लगते हैं ये!

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    क्षमा प्रार्थी हूँ, अगर हमारी बातों से किसी को ठेस पहुँचती हो... हालाँकि मैंने काफी समय इनको पढने में बिताए हैं, सो कुछ कहना गलत नहीं था... ...
    सबके बावजूद कुछ खासियतों के कारण हम इनका सम्मान करते हैं, प्रेरक रहे हैं ये... ...
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    2.
    आशुतोष की कलमFeb 20, 2012 02:42 AM

    विश्वजीत भाई विचार बहुत अच्छे हैं मगर क्या ये समाज इन आदर्शो को पुनर्स्थापित कर पायेगा ये एक यक्ष प्रश्न है..
    फिर भी हम आशान्वित है.."रसरि आवत जात से शिल पर पडत निशान"

    बहुत अच्छी पोस्ट
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
    3.
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)Feb 20, 2012 08:51 AM

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    ओम् नमः शिवाय!
    महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ!
    प्रत्‍युत्तर दें

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