शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

अखण्ड भारत के स्वप्न द्रष्टा - वीर नाथूराम गोडसे भाग - 3

पिछले दो भागोँ मेँ आपने श्री नाथूरामजी गोडसे द्वारा गांधीजी का वध करने के प्रमुख कारणोँ को पढा,अब आगे ......
वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी वध का निर्णय लिया था । गांधी और मेरे जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का । गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ ।
मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था । किसी का वध करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ ।
यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे अत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया ! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए !!
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे ।
मोहनदास गांधीजी की हत्या करने के कारण नाथूराम गोडसेजी एवँ उनके मित्र नारायण आपटेजी को फाँसी की सजा सुनाई गई थी । न्यायालय मेँ जब गोडसे को फाँसी की सजा सुनाई गई तो पुरुषोँ के बाजू फडक रहे थे, और स्त्रियोँ की आँखोँ मेँ आँसू थे । नाथूराम गोडसे व नारायण आपटे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला (हरियाणा) मेँ फासी दी गई । फाँसी दिये जाने से कुछ ही समय पहले नाथूराम गोडसे ने अपने भाई दत्तात्रेय को हिदायत देते हुए कहा था, कि
" मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धू नदी मेँ ही उस समय प्रवाहित करना जब सिन्धू नदी एक स्वतन्त्र नदी के रुप मेँ भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमेँ कितने भी वर्ष लग जायेँ, कितनी ही पीढियाँ जन्म लेँ, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना ।"
श्रीनाथूराम गोडसे ने तो न्यायालय से भी अपनी अन्तिम इच्छा मेँ सिर्फ यही माँगा था - " हिन्दुस्थान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी है, अतः मेरी अस्थियोँ को पवित्र सिन्धू नदी मेँ प्रवाहित कराया जाए ।"
वीर नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे ने वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुये फाँसी के फंदे को अखण्ड भारत का स्वप्न देखते हुये चुमा और देश के लिए आत्म बलिदान दे दिया ।
नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करना तो दूर उनकी राख भी उनके परिवार वालोँ को नहीँ सौँपी गई थी । जेल अधिकारियोँ ने अस्थियोँ और राख से भरा मटका रेलवे पुल के ऊपर से घग्गर मेँ फेँक दिया था । दोपहर बाद मेँ उन्ही जेल कर्मचारियोँ मेँ से किसी ने बाजार मेँ जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह सूचना स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई ।इन्द्रसेन उस समय ' द ट्रिब्यून ' के कर्मचारी भी थे । इन्द्रसेन तत्काल अपने दो मित्रोँ को साथ लेकर दुकानदार द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचेँ । उन दिनोँ घग्गर नदी मेँ उस स्थान पर बहुत ही कम पानी था । उन्होँने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहल को सौप दिया, जिन्होँने आगे उसे डाँ. एल वी परांजये को नाशिक मेँ ले जाकर सुपुर्द किया । उसके पश्चात वह अस्थिकलश 1965 मेँ नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे तक पहुँचाया गया, जब वे जेल से रिहा हुए । वर्तमान मेँ यह अस्थिकलश पूना मेँ उनके निवास पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी होने की प्रतिक्षा मेँ रखा हुआ है ।
15 नवम्बर 1950 से अभी तक प्रत्येक 15 नवम्बर को महात्मा गोडसे का " शहीद दिवस " मनाया जाता है । सबसे पहले नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के चित्रोँ को अखण्ड भारत के चित्र के साथ रखकर फूलमाला पहनाई जाती है ।उसके पश्चात जितने वर्ष उनके आत्मबलिदान को हुए है उतने दीपक जलाये जाते है और आरती होती है । अन्त मेँ उपस्थित सभी लोग यह प्रतिज्ञा लेते है कि वे महात्मा गोडसेजी के " अखण्ड हिन्दुस्थान " के स्वप्न को पूरा करने के लिये काम करते रहेँगे । हमे पूर्ण विश्वास है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश एक दिन टुकडे- टुकडे होकर बिखर जायेगे और अन्ततः उनका भारत मेँ विलय होगा और तब गोडसेजी का अस्थिविर्सजन किया जायेगा ।
हमेँ स्मरण रखना होगा कि यहूदियोँ को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, प्रत्येक वर्ष वे प्रतिज्ञा लेते थे कि अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा । इसी प्रकार हमेँ भी प्रत्येक 15 नवम्बर को अखण्ड भारत बनाने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये ।
मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य किसी की भावनाओँ को ठेस पहुँचाना नहीँ, बल्कि उस सच को उजागर करना है, जिसे अभी तक इतिहासकार और भारत सरकार अनदेखा करती रही है । गांधीजी के बलिदान को नही भूला जा सकता है तो गोडसेजी के बलिदान को भी नही ।
वन्दे मातरम्
- विश्वजीत सिँह 'अनंत'

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